अपने हुए बेगाने

 


 


 


 




असम में जब से एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अमल में आया है, तब से यहां आये दिन ऐसे मामले सामने निकलकर आ रहे हैं जिससे यह मालूम चलता है कि राज्य में अवैध अप्रवासियों की पहचान कर रही एजेंसियां मसलन पुलिस, विदेशी न्यायाधिकरण (फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल) राष्ट्रीय नागरिक पंजी सेवा केंद्र आदि कितना गैर-जिम्मेदाराना ढंग और असंवेदनशीलता के साथ काम कर रहे हैं। वर्षों से इस राज्य में निवास कर रहे नागरिकों को गलत पहचान की वजह से कैसी-कैसी परेशानियां पेश आ रही हैं। ज्यादातर मामले गलत पहचान से जुड़े हुए हैं। हाल ही में ऐसे दो दर्दनाक मामले सामने आए हैं जो पूरे देश में चर्चा का विषय बने। पहला मामला, एक बुजुर्ग महिला मधुबाला मंडल का है। जिन्हें गलत पहचान की वजह से तीन साल तक हिरासत शिविर में गुजारना पड़ा। मधुबाला की रिहाई उस वक्त मुमकिन हुई जब विदेशी न्यायाधिकरण के सामने खुद पुलिस ने इस बात को स्वीकार किया कि उन्होंने साल 2016 में न्यायाधिकरण द्वारा विदेशी घोषित की गई मधुमाला दास की जगह गलती से मधुबाला मंडल को हिरासत शिविर में भेज दिया था। मधुबाला मंडल हिरासत शिविर में ही रहती यदि उसके कुछ रिश्तेदार और एक सामाजिक संस्था मधुबाला की रिहाई की कोशिशें नहीं करतीं। उनके शिकायत करने के बाद जब इस मामले की जांच हुई तो वास्तविक तथ्य सामने आ गए। यह सीधे-सीधे गलत पहचान का मामला था। पुलिस की बॉर्डर विंग को जिस मधुमाला दास को पकड़ना था उसकी मौत लंबे समय पहले हो गई थी। पुलिस ने उसकी जगह मधुमाला मंडल को हिरासत शिविर में पहुंचा दिया था। दूसरा मामला, 30 साल तक सेना और फिर असम बॉर्डर पुलिस में सेवा देने वाले राष्ट्रपति पदक से सम्मानित पूर्व भारतीय सैनिक मोहम्मद सनाउल्लाह का है। जिन्हें एक जांच अधिकारी ने पहले अपनी श्जांच में विदेशी बतलाया और उसके बाद विदेशी न्यायाधिकरण ने उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंदी केंद्र में पहुंचा दिया। जब मामला राष्ट्रीय मीडिया में आया तो मीडिया ने मामले की और भी विस्तृत जांच की। जांच से असलियत सामने आ गई। जिन कथित गवाहों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई थी उनका कहना है कि उन्होंने कभी गवाही दी ही नहीं। जांच अधिकारी ने झूठी गवाहियों और मोहम्मद सनाउल्लाह के कथित इकबालिया बयान की बदौलत उन्हें जबर्दस्ती अवैध प्रवासी घोषित कर दिया था। अब जबकि यह पूरा मामला खुलकर सामने आ गया है तो असम पुलिस ने सनाउल्लाह मामले के जांच अधिकारी के खिला$फ मामला दर्ज कर लिया है। मोहम्मद सनाउल्लाह को नजरबंदी शिविर में भेजने के मामले में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने ना सिर्फ उन्हें जमानत दे दी है बल्कि केंद्र राज्य सरकार राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के अधिकारियों और असम सीमा पुलिस के जांच अधिकारी चंद्रमल दास को भी नोटिस जारी किया है। इस तरह के मामलों ने राज्य के मूल निवासियों की चिंताओं और संदेह को बढ़ा दिया है। जिन एजेंसियों को अवैध प्रवासियों को पहचानने और उनकी पहचान के सत्यापन का काम सौंपा गया है यदि वे ही अपना काम ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता से नहीं करेंगी तो वे किस पर यकीन करेंगे। कहां अपनी फरियाद लेकर जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में काम कर रहे एनआरसी का मकसद भारतीय नागरिकों और बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान करना है। लेकिन पिछले साल 30 जुलाई को जो एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित हुआ उसमें बड़ी संख्या में असम में रह रहे हिन्दीभाषियों के नाम भी शामिल नहीं हैं। जिन 40 लाख लोगों के नाम छूटे हैं, उनमें असम की पहली महिला मुख्यमंत्री सैयदा अनवरा तैमूर (पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के रिश्तेदार) साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता दुर्गा खाटीवाड़ा और असम आंदोलन की पहली महिला शहीद बजयंती देवी के परिवार के सदस्य) स्वतंत्रता सेनानी छबीलाल उपाध्याय की प्रपौत्री मंजू देवी समेत अनेक नामी-गिरामी हस्तियां हैं। जिन भारतीयों के नाम इसमें शामिल नहीं हैं, उनमें बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से आकर असम में बसने वालों की संख्या ज्यादा है। ऐसे भी लोग हैं, जिनके पास आधार कार्ड, पासपोर्ट आदि जरूरी दस्तावेज हैं, लेकिन उनका नाम ड्राफ्ट में नहीं है। विदेशी न्यायाधिकरण ने इनका नाम जबरन निष्कासन सूची में डाल दिया है। कुछ मामले ऐसे भी सामने आये हैं जिनमें विदेशी अधिकरण ने कुछ लोगों को महज इसलिए विदेशी घोषित कर दिया कि उनका नाम एनआरसी में तो था, लेकिन वे या उसका कोई प्रतिनिधि अधिकरण के सामने पेश नहीं हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐसे ही एक मामले में विदेशी ठहराए गए एक लकवाग्रस्त शख्स अजीजुल हक की याचिका पर केंद्र और असम दोनों सरकारों से जवाब तलब किया है। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा है कि शरीर के निचले अंग में लकवा के कारण वह सुनवाई में पेश नहीं हो सका था और अधिकरण ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए उसे विदेशी घोषित कर दिया। जिसकी वजह से वह पिछले दो साल से हिरासत केंद्र में बंद है। एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक पंजी को इस महीने की 31 जुलाई तक अंतिम रूप दिया जाना है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी समय सीमा आगे बढ़ाने से साफ इंकार कर दिया है। लिहाजा एनआरसी सेवा केंद्र और विदेशी न्यायाधिकरण लक्ष्य पूरा करने की जल्दबाजी में हैं। उनकी इस जल्दबाजी से गरीब, साधनहीन लोग खामियों का शिकार बन रहे हैं। इस बात पर शायद ही किसी को एतराज हो कि एनआरसी, असम समझौते की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाए और जो अवैध प्रवासी पकड़ में आए, उसके भारत की नागरिकता के अधिकार छीन लिए जाएं। लेकिन इस बात का भी अच्छी तरह से ख्याल रखा जाए कि किसी वास्तविक भारतीय व्यक्ति का नाम इस सूची से बाहर न हो। अपने-बेगाने के बीच फर्क करने से पहले, यह संजीदगी से परखा जाए कि इस प्रक्रिया से आम भारतीय पर तो असर नहीं पड़ रहा। कहीं धर्म और भाषा के आधार पर असम के नागरिकों के साथ भेदभाव तो नहीं किया जा रहा। उनके संवैधानिक अधिकार तो प्रभावित नहीं हो रहे। हालांकि अपने और बेगाने के खांचों में सोचना देश की सदियों पुरानी संस्कृति की उदारता से मेल नहीं खाता, लेकिन राष्ट्र व राज्यों की सीमाओं में बंटी आज की दुनिया की अपनी मजबूरियां हैं, जो समझी जा सकती हैं। फिर भी जरूरत यह है कि अपने-बेगाने के बीच फर्क करने से पहले पहचान में जरा भी लापरवाही न बरती जाए और शिकायतों की जांच के मामले में पूरी उदारता रखी जाए।
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