दबाव नहीं, कारोबार

 


 


 


 


 



भारत और अमेरिका के व्यापार वार्ताकारों के बीच नई दिल्ली में चली दो दिन की बैठक शुक्रवार को बिना कोई नतीजा दिए खत्म हो गई। अब सबकी नजरें वाणिज्य व उद्योग मंत्री पीयूष गोयल की अगले महीने प्रस्तावित अमेरिका यात्रा पर टिक गई है। उम्मीद जताई जा रही है कि उनकी यात्रा के दौरान दोनों पक्षों में सहमति बना ली जाएगी, हालांकि उस प्रस्तावित यात्रा की तारीख भी अभी तय नहीं हुई है। प्रतिनिधियों की इस बैठक से उम्मीद इसलिए बनी हुई थी क्योंकि इसकी जमीन जापान में पिछले महीने जी-20 की बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मुलाकात में तैयार हुई थी।
तब ट्रंप ने यहां तक कह दिया था कि भारत के साथ एक बहुत बड़ी ट्रेड डील होने वाली है। लेकिन उसके बाद हालात फिर से उलझने लगे और दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत शुरू होने से ठीक पहले ट्रंप ने ट्वीट कर कहा कि अमेरिकी सामानों पर भारत का ऊंचा शुल्क अब और मंजूर नहीं किया जा सकता। जाहिर है, बातचीत की नाकामी के पीछे अमेरिका का यही अडिय़ल रुख है। बताया जाता है कि अमेरिकी पक्ष चाहता था पहले भारत अमेरिकी सामानों पर शुल्क कम करे, उसके बाद बाकी मसलों पर बातचीत हो। लेकिन भारत ने शुल्कों में बढ़ोतरी अमेरिका द्वारा भारतीय सामानों को विशेषाधिकार प्राप्त वस्तुओं की सूची से निकाले जाने के जवाब में की है। ऐसे में अमेरिकी कदम वापस लिए जाने से पहले भारत से शुल्क कम करने को कहना जायज कैसे हो सकता है? दरअसल इस गतिरोध की जड़ें दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों के स्वरूप में हैं। 
अभी दोनों देशों के बीच करीब 126 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार होता है जिसमें भारत का निर्यात 77.2 अरब डॉलर का है और आयात 48.8 अरब डॉलर का। इस लिहाज से अमेरिका के हिस्से सालाना 28.4 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है। लेकिन यह कागजी तस्वीर हकीकत से मेल नहीं खाती। असलियत यह है कि यह सिर्फ वस्तुओं के व्यापार का हिसाब है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और फेसबुक जैसी अमेरिकी कंपनियों को और खासकर अमेरिकी बैंकों, बीमा कंपनियों और संस्थागत निवेशकों को भारत से होने वाली कमाई को नजर में रखें तो यह व्यापार घाटा कहीं नहीं ठहरता। दिक्कत सिर्फ एक है कि अमेरिका को भारत से होने वाली यह बेहिसाब कमाई वहां रोजगार नहीं पैदा करती, और चुनावी राजनीति का तकाजा यह है कि रोजगार हर हाल में पैदा होते दिखने चाहिए। 
सामानों के उत्पादन और व्यापार के बजाय वित्तीय कारोबार को तरजीह देने की नीति अमेरिकी शासकों ने लंबे समय से अपना रखी है, लेकिन ट्रंप सरकार उसका ठीकरा भारत और अन्य देशों पर फोड़ते हुए उनके हितों की कीमत पर अतिरिक्त लाभ हासिल करने का जुगाड़ बना रही है। लेकिन व्यापार हमेशा दोतरफा मामला होता है। यह किसी की छाती पर चढ़कर नहीं किया जा सकता, अमेरिकी निजाम जितनी जल्दी यह बात समझ ले, उतना अच्छा।