डॉ साहब, अपनी पहचान बचाइए

 


 


 


 


 



कृष्णप्रताप सिंह
साल 1969-70 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्वर्गीय चन्द्रभानु गुप्त ने अपनी आत्मकथा 'मेरा सफर कहीं रुका नहीं, झुका नहींÓ में लिखा है कि इस देश के डॉक्टर भी उतने ही अधकचरे व कर्त्तव्यहीन हैं, जितने नेता।
गुप्त के निधन के 39 साल बाद हमारे डॉक्टरों ने न सिर्फ  केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के बीच छिड़े हिंसक सत्ता संघर्ष में अपना अमानवीय इस्तेमाल कराकर बल्कि महाराष्ट्र के बीड जिले में पिछले तीन साल में 4605 महिला गन्ना कटाई मजदूरों के गर्भाशय निकालने में आपराधिक 'सहयोगÓ और उत्तर प्रदेश के बरेली में एक दुधमुंही बच्ची का इलाज करने से जानलेवा इनकार के मार्फत भी 'सिद्धÓ कर दिया है कि चन्द्रभानु ने उस वक्त जो कुछ लिखा था, वह आज भी उतना ही सत्य है। 
कहने की जरूरत नहीं कि बीड में महिला गन्ना कटाई मजदूरों के गर्भाशय निकालने का गोरखधंधा तीन साल की उम्र पा ही नहीं सकता था, अगर डॉक्टर कर्त्तव्यहीनता से बाज आकर अपने पेशे से जुड़ी नैतिकताएं ठीक से निभाते। इसी तरह चार दिन की बरेली की बच्ची को जिंदगी का पांचवां दिन इसलिए नसीब नहीं हुआ कि वह अपनी जिस दादी मां की गोद में सरकारी अस्पताल पहुंची, उसको पता नहीं था कि वह उसे पुरु षों के अस्पताल में ले जाएं या महिलाओं के। दोनों अस्पतालों के डॉक्टर शटलकॉक की तरह इस दादी मां को एक से दूसरे अस्पताल भेजते रहे और जब तक वे तय कर पाते कि उनमें से बच्ची का इलाज कौन करेगा, बच्ची की सांसें चुक गई। जाहिर है कि ऐसे में यह तय कर पाना मुश्किल है कि पश्चिम बंगाल के बहाने अपनी सुरक्षा की आड़ लेकर उनके द्वारा की गई हड़ताल ज्यादा अमानवीय थी या बच्ची के इलाज में बरती गई कर्त्तव्यहीनता। 
गौरतलब है कि जैसे इस कर्त्तव्यहीनता का वैसे ही जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे मरीजों को उनके हाल पर छोड़ देने वाली इन डॉक्टरों की ट्रेड यूनियनों जैसी पिछली हड़ताल का भी समर्थन नहीं किया जा सकता था क्योंकि जिस लम्पट वीवीआइपी संस्कृति से उनकी सुरक्षा को सबसे ज्यादा अंदेशे पैदा होते हैं, उसके साथ उनकी मिलीभगत उक्त हड़ताल में भी बेअसर रही थी। 'चाल करें झींगा और मारे जाएं रोहूÓ की तर्ज पर उन्होंने खुराफात की जड़ वीवीआइपियों की सेवा-टहल से कतई कोई इनकार नहीं किया था और अपनी हड़ताल का सारा नजला लाचार, बेजार व बेकसूर मरीजों पर ही गिराते रहे थे। यह मानने के कारण हैं कि वीवीआइपी की यह 'सेवाÓ ही उन्हें कर्त्तव्यहीनता की ऐसी अमर्यादित शक्ति देती है, जिसकी आड़ में वे चार दिन की बच्ची से भी डॉक्टर तो क्या आदमी की तरह भी पेश नहीं आते। 
एक समय इन डॉक्टरों ने उत्तर प्रदेश में लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में अचानक हड़ताल कर दी, जिसके कारण मरीजों पर बुरी बीतने लगी तो हिंदी के अपने समय के महत्त्वपूर्ण कवि विष्णु खरे ने, जो उन दिनों 'नवभारत टाइम्सÓ के लखनऊ संस्करण के संपादक थे,लिखा था-इस हड़ताल का कतई समर्थन नहीं किया जा सकता; क्योंकि ये डॉक्टर या उनकी यूनियनें कभी इस बात को लेकर हड़ताल नहीं करतीं कि उनके अस्पतालों में समुचित उपकरण व सुविधाएं नहीं हैं, जिसके कारण उनके लिए मरीजों के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाना कठिन हो रहा है। अस्पतालों में अटी पड़ी गंदगी से भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती-मरीजों के घंटों तक डॉक्टर के इंतजार के लिए अभिशप्त अथवा पेयजल व शौचालय जैसी सुविधाओं से वंचित होने से भी। जहां पहले कहा जाता था कि डॉक्टर के पास जाने का गुर्दा (यानी हैसियत। तात्पर्य जेब में भरपूर रुपये होने से।) होना चाहिए, अब कहा जाता है कि किसी भी ऑपरेशन के बाद पक्का कर लेना चाहिए कि मरीज के दोनों गुर्दे अथवा सारे अंग अपनी जगह सलामत हैं कि नहीं। 
थोड़े ही दिन पहले कानपुर में डॉक्टरों की संलिप्तता वाले एक बड़े किडनी रैकेट का भंडाफोड़ हुआ है, लेकिन डॉक्टरों के सबसे बड़े संगठन आइएमए में किसी भी स्तर पर इसकी शर्म महसूस नहीं की गई है। कई साल पहले आई एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में कोई दस हजार लोग हर साल इन डॉक्टरों की खराब लिखावट के चलते अपनी जानें गवा देते हैं। देश में अभी भी कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां लोग समय पर डॉक्टर उपलब्ध न हो पाने के कारण जानें गंवाने को अभिशप्त हैं। ऐसा नहीं होगा तो मरीजों का तो जो होगा, होगा ही, डॉक्टर भी अपनी पुरानी पहचान नहीं बचा पाएंगे।

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