खाना नहीं सुहाना

 


 


 


 



सार्वजनिक स्थलों पर खाने की गुणवत्ता की परख करने वाली सरकारी संस्था फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी एफएसएसएआई की वह रिपोर्ट चौंकाती है, जिसमें हरियाणा को 16वें पायदान पर रखा गया है। दूध-दही के पौष्टिक खाने के लिये पहचान रखने वाले हरियाणा के बाबत यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है। जो इस बात का भी संकेत है कि लोगों की खानपान की आदतों में बदलाव आया है और वे होटल, रेस्टोरेंट व ढाबों में खाना पसंद करने लगे हैं। संस्था द्वारा अपने सर्वेक्षण में हरियाणा को चेताते हुए 'रेड कलरÓ का तमगा देना चिंता की बात है। एक तरफ हाल के हेल्थ इंडेक्स में हरियाणा का स्थान अव्वल था, वहीं दूसरी ओर खानपान की गुणवत्ता में राज्य पिछड़ रहा है। दरअसल, गुणवत्ता के मानक निर्धारित करने वाली संस्था देश के सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में ऐसे सर्वे करती है और उच्चस्तरीय प्रयोगशालाओं में नमूनों की जांच की जाती है। विडंबना देखिये कि जांच करने वाली संस्था भी सरकारी है और अनदेखी करने वाली भी सरकार ही है। कहीं न कहीं गुणवत्ता के मानकों की पड़ताल करने वाले सिस्टम की विफलता ही इन खामियों की वजह है। हरियाणा में एफएसओ के 45 पद स्वीकृत होने के बावजूद सिर्फ सात के ही सक्रिय रहना बताता है कि सरकार इस जटिल समस्या को गंभीरता से नहीं ले रही है। खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की कारगुजारियां भी किसी से छिपी नहीं हैं। इन मलाईदार पदों पर नियुक्ति और उनके क्रियाकलापों पर ज्यादा प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है। मगर एक बात तो तय है कि हरियाणा में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में गिरावट का निष्कर्ष यही है कि निगरानी के प्रयास ईमानदारी से नहीं किये गये। लोगों में बाहर खाने की प्रवृत्ति जिस तेजी से बढ़ी है, उसके मद्देनजर सरकारी तंत्र की गुणवत्ता निर्धारण की कवायद तेज हो जानी चाहिए। मगर विडंबना कि ऐसा नहीं हो रहा है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आये दिन मिलावटी खाद्य पदार्थ की बिक्री व फल व सब्जियों में घातक रासायनिकों के प्रयोग की खबरें लगातार मीडिया में उछलने के बावजूद राज्य सरकार द्वारा कोई बड़ा अभियान इसे रोकने के लिये नहीं चलाया जाता। फलों को कृत्रिम रंगों से चमकाना, उन्हें रंगना तथा फलों को रासायनिकों के मिश्रण से पकाना आम बात है जो सेहत के लिये घातक है।?मगर इसके बावजूद कोई पकड़-धकड़ अभियान नहीं चलता। किसी की गिरफ्तारी व सजा की खबरें नहीं सुनायी देतीं। विडंबना यह भी है कि आज समाज में पैसा कमाने की हवस इतनी तीव्र हुई है कि नागरिकों के स्वास्थ्य की कोई फिक्र नहीं करता। यह तथ्य किसी से नहीं छिपा है कि राज्य में अधिक मांग व कम आपूर्ति के बावजूद दूध व उससे बने खाद्य पदार्थों की कोई कमी नजर नहीं आती। जाहिरा तौर पर राज्य में सिंथेटिक दूध की दस्तक हो चुकी है। कल्पना कीजिये कि बच्चों और बीमारों को जब यह कृत्रिम दूध दिया जायेगा तो उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। खाद्य पदार्थों के नमूने फेल होने की एक वजह यह भी है कि लोगों में खाने की गुणवत्ता के बजाय उसका स्वाद प्राथमिकता होता है। लोग सादा व स्वास्थ्यवर्धक खाना खाने से परहेज करते हैं। चटपटा व स्वादिष्ट खाना परोसने की होड़ में इसको लेकर तमाम ऐसे प्रयोग किये जाते हैं, जो उसकी गुणवत्ता में गिरावट का सबब बनते हैं। जरूरत इस बात की है कि राज्य में मिलावट की जांच के लिये उन्नत किस्म की प्रयोगशालाएं बनें, गुणवत्ता की पड़ताल करने वाले अधिकारी पर्याप्त संख्या में तैनात हों। इसके अलावा जनता की शिकायत सुनने के लिये सिंगल विंडो सिस्टम बनाया जाये। सरकार तुरंत इस तरह की शिकायत सुनने के लिये उपभोक्ता हेल्पलाइन सेवा शुरू करे। सरकार की जवाबदेही और जनता की जागरूकता से ही बात बनेगी।