क्षेत्रीय दल : बने रहेंगे ठसक से

 


 


 




सत्रहवीं लोक सभा के लिए हुए चुनाव के परिणामों में भाजपा को मिले एकतरफा जनादेश ने राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर दिया है।
 इस चुनावी जीत के कई मायने निकाले जा रहे हैं।  एक तरफ ये परिणाम भारतीय राजनीति में एकदलीय वर्चस्व की वापसी के संकेत हैं तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी।  
मोदी मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी के मुद्दे पर क्षेत्रीय दलों के लिए सांकेतिक प्रतिनिधित्व का फरमान सुनाकर भाजपा ने पहली बार अपने वर्चस्व को स्पष्ट किया। सहयोगी दलों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद क्षेत्रीय दलों को एक तराजू पर तौलना उनके अस्तित्व पर एक बहुत गहरी चोट है। लोक सभा में 16 सीटों के साथ तीसरे नम्बर पर जदयू के विरोध को तवज्जो न देना भी इस बात की पुष्टि करता है। महागठबंधन के साथ अल्प संगत को छोड़ दिया जाए तो एनडीए के सबसे पुराने घटक दल होने के बावजूद भी जदयू के साथ ऐसा हो सकता है तो एक-दो सदस्यों वाले दलों की स्थिति बेहद दयनीय होने की पूर्ण संभावना है। कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कालांतर में भाजपा इन दलों का अस्तित्व मिटाने में भी कोई कोताही नहीं करेगी। दरअसल, मोदी-शाह जोड़ी के निशाने पर मजबूत आधार वाले क्षेत्रीय दल भी हैं। अगली पंक्ति में लालू के नेतृत्व में राजद, मायावती के नेतृत्व में बसपा, अखिलेश के नेतृत्व में सपा और ममता के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस हैं। लोक सभा परिणाम ने पूरे विपक्षी दलों खासकर क्षेत्रीय दलों को सकते में लाकर खड़ा कर दिया है। 
महागठबंधन से अलग होने के पश्चात नीतीश कुमार के सुशासन, छवि और शुचिता पर कई बार संगीन सवाल उठे। शराबबंदी हो, दहेजबंदी हो, दंगा की घटनाएं या शेल्टर होम रेप मामले पर कार्रवाई में विलंब हो और उन्हीं मामलों में सुप्रीम कोर्ट की फटकार जो बार-बार अखबारों की सुर्खियों में रही। ऐसी परिस्थितियों में कानून के राज पर नीतीश सरकार की गिरती साख को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, दोनों जगह सत्तारूढ़ दल के हारने के लिए मुद्दे मौजूद थे लेकिन इस चुनाव में मुद्दे हारते दिखे और सत्तारूढ़ गठबंधन दल चुनाव में बाजी मारता दिखा। एनडीए के सामाजिक और सियासी समीकरण को प्रचंड समर्थन मिला। इस चुनाव में बिहार के संदर्भ में पांच दलों के विपक्षी गठबंधन का प्रयोग एक प्रकार से विफल होता दिखा। सिर्फ  बिहार में ही नहीं, बल्कि हिंदी पट्टी के कई प्रदेशों में ऐसा ही जनादेश देखने को मिला।
क्षेत्रीय दलों को अब तक की सबसे बड़ी हार झेलनी पड़ी। जाहिर है दल और नेतृत्व, दोनों राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर हैं। आम तौर पर चुनावी हार-जीत के कई कारण होते हैं, लेकिन जीत के लिए अक्सर नेता की लोकप्रियता को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती हैं। ठीक उसी तरह हार के लिए नेतृत्व पर कई सवाल एकाएक खड़े हो जाते हैं। चुनावी शिकस्त के शिकार दलों की हार के कारण और निवारण पर ऐसी टिप्पणियां समसामयिक संदर्भ में प्रासंगिक भी लगती हैं। इसलिए सार्थक चिंतन और मनन समय की मांग बन जाती है। 
चिंतन के महत्त्वपूर्ण बिंदु मुख्यत: तीन होने चाहिए। प्रथम दृष्टि संगठन पर होनी चाहिए जहां युद्ध स्तर पर सघन सदस्यता अभियान से लेकर दल-पदाधिकारियों को कार्यक्रम, नीति और रणनीति के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रशिक्षण को प्राथमिकता देनी होगी। एनडीए के घटक दलों को अलग-अलग मुद्दों पर घेरने की रणनीति पर विचार करना होगा। दल की दृष्टि को प्रखंड-पंचायत स्तर तक पहुचाने का बीड़ा उठाना पड़ेगा।
द्वितीय, युवा वोटरों से संवाद के जरिए सामाजिक न्याय और विकास के विभिन्न समेकित पहलुओं पर अपनी वैचारिकी को स्पष्ट करना होगा। तीसरी महत्त्वपूर्ण बिंदु होगा कि बिहार में व्याप्त भ्रष्टाचार, संप्रदायिकता और लचर कानुन व्यवस्था को भी चुनावी मुद्दा बनाना पड़ेगा। अंत में, भारतीय राज्य के प्रोजेक्ट में अनेकता में एकता को एक धरोहर के तौर पर सर्वमान्य माना गया है। क्षेत्रीय दल मूल रूप से स्थानीय आकांक्षाओं के लिए समर्पित होते हैं। इन दलों से आकांक्षाएं भौगोलिक, सामाजिक, भाषा, खानपान और संस्कृति के स्तर पर भिन्न होती हैं, और  क्षेत्रीयता की भावना अटूट होती है। यही कारण है कि राष्ट्रीय दल के होने के बावजूद क्षेत्रीय दलों ने काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई दफा तो क्षेत्रीय दलों ने भारतीय राजनीति की दिशा भी  तय की हैं। इनका प्रदर्शन कभी अच्छा रह सकता है, तो  कभी खराब भी रह सकता है, लेकिन इन्हें मिटाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
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