भारतीय राजनीति राजसत्ता की राजनीति में सिमटती चली गई है, जबकि इसका मूल स्वर समाज बदलने की राजनीति से जुड़ा रहा है। आजादी की लड़ाई के वक्त से राष्ट्र निर्माण की राजनीति समाज निर्माण की राजनीति से बहुत गहराई से जुड़ी रही। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. राममनोहर लोहिया अपनी राजनीति को सदैव सामाजिक राजनीति का रूप देते रहे। महात्मा गांधी की आजादी की लड़ाई की संकल्पना अछूतों, नारियों एवं गरीबों की मुक्ति से भी जुड़ी थी। आजादी के बाद भी यदि आप 70 के दशक तक की भारतीय राजनीति का स्वरूप देखें तो पाएंगे कि हमारे कई बड़े नेता जैसे- इंदिरा गांधी, चंद्रशेखर, कामराज, चैधरी चरण सिंह, दीनदयाल उपाध्याय आदि अपनी राजनीति को सामाजिक राजनीति से जोड़ते रहे। इन नेताओं का राजनीतिक प्रभाव उनकी सामाजिक शक्ति से ही जुड़ा रहा। 70 के दशक के बाद हालांकि भारतीय राजनीति में अपराधी, माफिया, पूंजीपति आदि खूब सक्रिय हुए, किंतु वे कभी भी भारतीय राजनीति की मुख्यधारा नहीं बन पाए। 1990 के दशक में देश में नव-उदारवादी बाजार व्यवस्था लागू होने के बाद भारतीय जनतंत्र की राजनीति गवर्नेंस की राजनीति में तब्दील हो गई। गवर्नेंस की राजनीति जटिल है। इसकी जटिलता ने भारतीय राजनीति में विशेषज्ञों की महत्ता बढ़ा दी। प्रशासन का कार्य ज्यादा जटिल व टेक्निकल होता गया। फलतरू राजनीतिक प्रबंधक, वित्त विशेषज्ञ, प्रशिक्षित बैंकर्स, टेक्नोक्रेट्स, कानूनविदों पर जनाधार वाले नेताओं की निर्भरता बढ़ी। इस निर्भरता के कारण भारतीय राजनीति में ऐसे विशेषज्ञों की एक पूरी पीढ़ी आ गई। ऐसे नेताओं में से अनेक समाज की जड़ों से कटे हुए थे। वे आंकड़ों और मैनेजमेंट की राजनीति करते रहे। ऐसे नेताओं की राजनीति में सामाजिक जुड़ाव लगभग न के बराबर देखा गया। बौद्धिक एवं राजनीतिक सलाहकार ऐसे नेता लंबे समय तक भारतीय राजनीति में विकास की राजनीति के मूलाधार के रूप में सक्रिय रहे। इन्हें ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में लुटियन दिल्ली के राजनीतिक पंडित का विशेषण दिया था। हालांकि इनमें से कइयों ने प्रशासन के क्षेत्र में कई अहम काम भी किए, किंतु इनकी राजनीति शासन प्रबंधन तक ही सिमट गई। इनका जनता के साथ कोई जुड़ाव नहीं बन पाया। लिहाजा भारतीय शासन एवं विकास की राजनीति मूलतरू सत्ता की राजनीति में तब्दील होकर रह गई। भारतीय राजनीति एवं सामाजिक राजनीति का संबंध धीरे-धीरे टूटता-सा गया। सामाजिक राजनीति का जिम्मा एनजीओ को सौंपकर हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त हो गए। चुनाव के समय की बड़ी रैलियां और फेसबुक, ट्विटर, टीवी चैनल्स जनता से संवाद के साधन के रूप में रह गए। ऐसे राजनेताओं का जनता के साथ सीधा संवाद खत्म होता गया। ऐसे में जनता की आकांक्षाओं को समझने का सियासी जरिया ऐसे नेताओं के पास नहीं रहा, जो मात्र सत्ता की राजनीति करने में लगे रहे। जनता व नेताओं के बीच एक किस्म का अप्रत्यक्ष, आभासी एवं अदृश्य जैसा संबंध विकसित होता गया।पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की तारीफ करते हुए कहा था कि अब सामाजिक राजनीति का समय आ गया है। अब राजनेताओं को समाज कार्य से भी जुड़ना चाहिए। उन्होंने गुजरात के भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा में बिरला द्वारा किए गए कार्यों की सराहना की। बिरला द्वारा जरूरतमंद बच्चों के लिए किए गए कार्यों की भी प्रधानमंत्री ने बार-बार प्रशंसा की। पुनरू उन्होंने युवा सांसदों के साथ संवाद करते हुए उन्हें सामाजिक कार्यों से जुड़ने की नसीहत दी। उन्होंने कहा कि अब राजनेताओं को समाज सेवा से जुड़ना चाहिए, क्योंकि जनता विशुद्ध राजनीति की जगह सामाजिक कार्यों से ज्यादा प्रभावित होती है। यह एक प्रकार से नरेंद्र मोदी द्वारा सामाजिक राजनीति की पुनरू वापसी का आदर्श रचने जैसा है। यह आदर्श कितना सच में तब्दील होगा, यह तो कहना मुश्किल है, किंतु ऐसी अपीलों द्वारा प्रधानमंत्री मोदी भारतीय राजनीति को नया आयाम दे रहे हैं। सामाजिक कार्य से जुड़कर राजनेता एक नई राजनीतिक राह का निर्माण कर सकते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह मात्र एक मौखिक उपदेश न होकर भारतीय समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा। सामाजिक सेवाभावी कार्य के इस अभियान की प्रेरणा कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रीति-नीति से जुड़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रशिक्षित व्यक्तित्व हैं। बहुत संभव है कि उन्होंने यह अंतरूप्रेरणा संघ से अपने संबंधों के कारण पाई हो। यह भी हो सकता है कि उन्होंने यह अंतरूप्रेरणा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति के मंथन से प्राप्त की हो। यह भी संभव है कि हिंदू धार्मिक पंथों ने नरेंद्र मोदी को प्रभावित किया हो। चाहे जिन भी प्रेरणा स्रोतों से उन्हें इस अपील की अंतरूप्रेरणा मिली हो, अगर इसका थोड़ा-सा भी असर उनके सांसदों पर हुआ, तो भारतीय राजनीति का चेहरा थोडा-बहुत अवश्य बदलेगा। इसमें कोई दोराय नहीं कि मात्र सत्ता की राजनीति हमें सीमित एवं स्वार्थी बनाती है। इसके साथ समाज का जुड़ाव, सामाजिक मुद्दों का जुड़ाव हमें विकसित एवं विस्तारित करता है। यह हमें सत्ता की राजनीति के अंधे गलियारे से निकालकर एक ताजी हवा देता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी इन्हीं अपीलों एवं सुझावों में राजनीति की सामाजिक संवेदना की बात की है। नीरस, निष्ठुर एवं लोलुप किस्म की राजनीति का अर्थ-विस्तार इसी सामाजिक संवेदना के होने से ही संभव है। अच्छा होता कि अन्य राजनीतिक दलों का नेतृत्व भी अपने नेताओं को एक प्रकार की सामाजिक राजनीति विकसित करने का सुझाव देता। हो सकता है कि इस प्रकार की सोच भविष्य में और भी प्रभावी होकर उभरे, या फिर यह भी हो सकता है कि ये अपील मात्र मीडिया की खबर में तब्दील होकर रह जाए, किंतु भारतीय जनतंत्र एवं राजसत्ता की राजनीति को कहीं न कहीं सामाजिक सेवाभाव से जुड़ना ही होगा। यही सेवाभाव लोगों में राजनीति के प्रति हो रहे मोहभंग को खत्म कर एक नया विश्वास जगा पाएगा। प्रधानमंत्री मोदी अपनी विविध कार्य-नीतियों से जनता में अपने एवं अपनी राजनीति के लिए विश्वास भाव निर्मित करते जा रहे हैं। यह विश्वास कोष ही उन्हें चुनावों में बड़ी सफलता प्रदान कर रहा है। विपक्ष की राजनीति को भी मोदी की ऐसी कार्य-नीतियों एवं रणनीतियों की काट तलाशनी होगी। सामाजिक सेवाभाव का राजनीति से जुड़ाव निर्मित करने का मिशन ही भारतीय जनतंत्र की राजनीति को और ज्यादा गहरा, प्रभावी एवं सार्थक बना पाएगा। यह अलग बात है कि समाज को देखने की दृष्टि में राजनीतिक दलों में विभेद है, परंतु विकसित एवं शांतिपूर्ण समाज रचने की जिम्मेदारी तो सबकी है।
(लेखक प्रयागराज स्थित गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)
भारतीय राजनीति राजसत्ता की राजनीति में सिमटती