राहुल के बाद कांग्रेस में राग प्रियंका



खासकर भारत में हम जैसी तीव्र प्रतिस्पर्धी राजनीति देख रहे हैं, उसमें यह कल्पना भी मुश्किल है कि देश का सबसे पुराना राजनीतिक दल दो माह से भी अधिक समय से नेतृत्वविहीन रहे, पर कांग्रेस तो कांग्रेस है। चार दशक तक देश पर लगभग एकछत्र शासन करने वाली कांग्रेस को पिछले दो लोकसभा चुनावों में जैसी शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा, उसके मद्देनजर होना तो यह चाहिए था कि वह गहन आत्ममंथन कर कायाकल्प की दिशा में बढ़ती, लेकिन जो हुआ, वह अप्रत्याशित था। सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के दो दिन बाद ही 25 मई को आहूत समीक्षा बैठक में पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी। वैसे तो अब यह हर दल की ही परंपरा बन गयी है कि जीत का श्रेय शीर्ष नेतृत्व को देते हुए हार का ठीकरा स्थानीय नेतृत्व और मुद्दों पर फोड़ दिया जाता है, लेकिन कांग्रेस में तो यह सर्वथा अकल्पनीय ही था कि नेहरू परिवार से आया शीर्ष नेतृत्व भी हार की नैतिक जिम्मेदारी और पद त्याग की बात करे। राहुल ने ऐसा क्यों किया  इस स्वाभाविक, मगर अहम सवाल का जवाब वह खुद ही जानते होंगे, क्योंकि अभी तक कांग्रेस जिस किंकर्तव्यविमूढ़ता की दशा में नजर आ रही है, उससे लगता नहीं कि किसी और को कुछ आभास भी है।
राहुल ने गांधी परिवार से बाहर से अध्यक्ष चुनने की सलाह भी दी थी, लेकिन अपनी आदत के मुताबिक कांग्रेसी उन्हें मनाने की कोशिश ही करते रहे। नतीजतन एक दिन राहुल ने ट्विटर पर कार्यकर्ताओं के नाम चार पेज का पत्र जारी करते हुए अपने इस्तीफे का औपचारिक सार्वजनिक ऐलान भी कर दिया। इस बीच और उसके बाद भी जो कुछ घटा, वह दरअसल अर्श से फर्श की ओर फिसलती कांग्रेस को जोरदार धक्का ही देने वाला था। तेलंगाना में उसके दो-तिहाई विधायक वहां के सत्तारूढ़ दल में शामिल हो गये। गोवा में, खंडित जनादेश के चलते, सरकार बनाने में सुस्ती के लिए कांग्रेस का बड़ा मजाक उड़ा था। अपनी झेंप मिटाते हुए कांग्रेस ने आननफानन में जोड़तोड़ से सरकार बनाने के लिए भाजपा को जम कर कोसा। अब, नेतृत्व विहीनता के चलते, उसी गोवा में कांग्रेस के 10 विधायक भाजपा में शामिल हो गये। उसके चलते भाजपा को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल हो गया और उसने एक क्षेत्रीय दल को सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस से अन्य दलों, खासकर भाजपा में व्यक्तिगत दलबदल के अलावा सबसे बड़ा झटका कर्नाटक का रहा, जहां जनता दल सेक्यूलर के साथ बनी उसकी सरकार बगावत की भेंट चढ़ गयी।
कर्नाटक में भी खंडित जनादेश के बावजूद भाजपा ने सरकार बनाने की जल्दबाजी दिखायी थी, लेकिन तब तक सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव नहीं हुए थे। शायद इसीलिए सबसे बड़ा दल होने के बावजूद वह बहुमत के लिए चंद विधायक भी नहीं जुटा पायी और दिग्गज बीएस येदियुरप्पा को महज 16 घंटे बाद ही बेआबरू होकर सत्ता से बेदखल होना पड़ा। उसी के बाद छोटे दल जद सेक्यूलर के नेतृत्व में वहां गठबंधन सरकार बन पायी थी। लोकसभा चुनाव से पहले भी भाजपा ने कर्नाटक में कांग्रेस-जद सेक्यूलर सरकार गिराने की कोशिश की, लेकिन उसे सफलता मिली लोकसभा चुनाव के प्रचंड जनादेश के बाद। बेशक कांग्रेस-जद सेक्यूलर के बागी विधायकों को जिस तरह मुंबई ले जाकर होटल में रखा गया, उससे पर्दे के पीछे का खेल सहज ही समझा जा सकता है, लेकिन यह संभव इसलिए भी हो पाया क्योंकि कर्नाटक के कांग्रेसियों और जनता दलियों को भी लोकसभा चुनाव परिणाम से देश में राजनीतिक हवा का अहसास हो गया। यही कारण है कि अब जद सेक्यूलर में भी भाजपा सरकार को समर्थन देने की मांग मुखर होने लगी है। कर्नाटक में कांग्रेस की किरकिरी के बाद भी पार्टी से भगदड़ रुकने के बजाय बढ़ ही रही है। बीते जमाने के राजपरिवार के सदस्य संजय सिंह की जैसी भी छवि रही हो, पर अमेठी समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश में वह, संजय गांधी के समय से ही, कांग्रेस का प्रमुख चेहरा रहे हैं। मंगलवार को उन्होंने भी कांग्रेस को अलविदा कह दिया। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वह भी भगवा ही ओढ़ेंगे।
जाहिर है, कांग्रेस अपने जीवन के सबसे बुरे और चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है, जब उसके अस्तित्व और भविष्य, दोनों पर ही सवालिया निशान गहरे होते नजर आ रहे हैं, लेकिन परंपरागत रूप से पार्टी का नेतृत्व करने वाले नेहरू परिवार और उसके दरबारियों का व्यवहार चौंकाने वाला है। माना कि राहुल गांधी ने अप्रत्याशित नैतिकता दिखाते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, उनकी भावनाओं का सम्मान भी किया जाना चाहिए, लेकिन क्या उनकी कांग्रेस के प्रति कोई राजनीतिक जिम्मेदारी-जवाबदेही नहीं बनती  इस्तीफा देने मात्र से ही राजनीतिक दल का अध्यक्ष अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकता। यह तो सामान्य समझ का भी तकाजा है कि उसे वैकल्पिक व्यवस्था की प्रक्रिया प्रशस्त करनी चाहिए और तब तक अपने दायित्व का निर्वाह भी, पर पिछले दो महीने से अंतहीन संकट से जूझ रही कांग्रेस को राहुल का हाथ और साथ नहीं मिला। विदेशी पृष्ठभूमि को लेकर विरोधी जो भी कटाक्ष करें, लेकिन सोनिया गांधी कांग्रेस के सफल अध्यक्षों में गिनी जायेंगी। विडंबना देखिए कि अपने बेटे राहुल की बालहठ सरीखे राजहठ के आगे वह भी कांग्रेस के पतन की मूकदर्शक बनी हुई हैं। दरबारियों की भूमिका तो और भी विचित्र है। राहुल को मानता न देख, उनके इशारे पर अब प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने का राग अलापा जाने लगा है। कहना नहीं होगा कि प्रियंका की सबसे बड़ी काबिलियत उस नेहरू परिवार का सदस्य होना ही है, जिसके सहारे सत्ता की राजनीति करने की कांग्रेसियों का आदत पड़ चुकी है। हालांकि लगातार दो लोकसभा और अनगिनत विधानसभा चुनावों में हार से साफ है कि तेजी से बदलती राजनीति में अब नेहरू या किसी भी परिवार का करिश्मा काम नहीं आयेगा, लेकिन दरबारी अब भी परिवार से बाहर नहीं देखना-दिखाना चाहते क्योंकि उससे न सिर्फ संगठनात्मक कमजोरियां, बल्कि वे खुद भी बेनकाब हो जायेंगे।
देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल को मात्र सत्ता तंत्र में तबदील करने में इन दरबारियों की बड़ी भूमिका रही है। खासकर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ये दरबारी सुनियोजित तरीके से नये नेतृत्व को इशारों पर नचाते हुए अपने हित साधते रहे हैं। राजीव गांधी को इसका आभास तो मुंबई अधिवेशन में हुआ, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को सत्ता के दलालों से मुक्त कराने की बात कही, लेकिन हुआ शायद उसका उलटा ही। राजीव की हत्या के बाद जब अनुभवी एवं विद्वान कांग्रेसी पीवी नरसिंह राव को पार्टी और सरकार की कमान मिली तो दरबारियों की दुकानें बंद हो गयीं। नतीजतन, राजनीति में आने से इनकार कर चुकीं सोनिया गांधी को समझा-बुझाकर या बहला-फुसलाकर अंतत: कांग्रेस की कमान संभालने को मना ही लिया। राव के कटु अनुभव के बाद जब 2004 में अचानक ही कांग्रेस के नाम सत्ता की लॉटरी खुल गयी तो किसी राजनेता के बजाय अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया ताकि मनमाफिक सरकार चलायी जा सके। उसी उद्देश्य से सोनिया के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी बनायी गयी। कांग्रेस लगातार दो कार्यकाल केंद्रीय सत्ता में तो रही, पर एक राजनीतिक दल के रूप में वह पूरी तरह खोखली हो गयी, क्योंकि संगठन और सरकार, दोनों ही दरबारियों की जेब में चले गये।
राहुल गांधी ने कोशिश अवश्य की, पर एक राष्ट्रीय दल का नेतृत्व करने के लिए जो दृष्टि और माद्दा चाहिए, वह उनमें था ही नहीं। इसीलिए वह सोनिया भक्तों और अपने समर्थकों के द्वंद्व से निकल कर कांग्रेस को नया रूप और दिशा नहीं दे पाये। अध्यक्ष बनने पर प्रियंका वैसा कर पायेंगी, इसमें शक की पूरी गुंजाइश है। माना कि उनके नैन-नक्श और भाषण शैली में इंदिरा गांधी की झलक दिखती है, लेकिन सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस का यह ट्रंप कार्ड पूरी तरह नाकाम रहा है। जिस पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रियंका प्रभारी थीं, वहां भी राहुल अपने परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से हार गये। कांग्रेसियों के बीच से जिस तरह राग प्रियंका मुखर हो रहा है, वह सुनियोजित भी लगता है, पर नहीं भूलना चाहिए कि प्रियंका के साथ राबर्ट वाड्रा की संदेहास्पद छवि भी जुड़ी है। अपने भावी नेतृत्व का फैसला तो कांग्रेस को खुद करना है, लेकिन अगर दरबारी परिवार से बाहर का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते तो बढ़ती उम्र के बावजूद सोनिया गांधी ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प साबित हो सकती हैं। शायद वह ही इस संकटकाल में कांग्रेस को एकजुट रख सकती हैं, जो फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती है।
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