संसद बीजेपी के हाथ


पहले सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, फिर तीन तलाक बिल को राज्य सभा से पारित कराकर नरेंद्र मोदी की सरकार ने संसद के दोनों सदनों में अपने वर्चस्व का सबूत दे दिया है। खासकर तीन तलाक बिल को एक पोलराइजिंग इश्यू की तरह लिया जा रहा था। समाज से लेकर राजनीति तक इस पर तीखा विभाजन देखा जा रहा था। राज्य सभा में बीजेपी की ताकत इधर तेजी से बढ़ी है, लेकिन अपने घोषित सहयोगियों को मिलाकर भी यहां वह बहुमत से अभी काफी दूर है। इसके बावजूद अपने तीखे टकराव वाले बिल भी अगर वह यहां से पास करा ले जा रही है तो यह उसके फ्लोर मैनेजरों के लिए शाबाशी की और विपक्ष के लिए चिंता की बात है। सदन के गणित पर ध्यान दें तो तीन तलाक विधेयक पारित होने के पीछे कुछ पार्टियों के वॉकआउट, कुछ के मतदान बहिष्कार और कुछ के बिना घोषणा के ही वोटिंग में हिस्सा न लेने की बड़ी भूमिका रही है। इसके अलावा कांग्रेस, एनसीपी, आरजेडी आदि के कुछ सामान्य और कुछ जाने-माने सांसद भी वोटिंग के दिन सदन में नहीं आए तो इन पार्टियों को इसकी वजह पता करनी चाहिए। संसद में चली बहस की शक्ल कुछ ऐसी थी जैसे इस विधेयक को लेकर हां या ना जैसा कोई बंटवारा ही न हो। 
विरोधी पक्ष का कहना था कि पारिवारिक विवाद को आपराधिक दायरे में ले जाना ठीक नहीं, फिर भी सरकार इस मामले में कानून लाना चाहती है तो विधेयक को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया जाए ताकि उसके खुरदुरे पहलुओं को दुरुस्त करके सहमति का दायरा बढ़ाया जा सके। यह जिम्मेदारी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की थी कि इस राय के पक्ष में वह अधिक से अधिक दलों और निर्दलीय सांसदों को गोलबंद करे। लेकिन कांग्रेस की अपनी समस्याएं ही इतनी ज्यादा हैं कि औरों की कौन कहे, उसके खुद के मौजूदा राज्य सभा सांसदों में से भी पांच ने वोटिंग से अलग रहना ठीक समझा। तो क्या लोकसभा के बाद राज्य सभा में भी, यानी समूची संसद पर बीजेपी के वर्चस्व को अब इतना पक्का मान लिया जाए कि अपनी मर्जी से वह कोई भी कानून बनवा सकती है  यह संदेश पार्टी के जनाधार में पहुंचने लगा है। गनीमत है कि विश्व हिंदू परिषद का शीर्ष पद अभी प्रवीण तोगडिय़ा नहीं संभाल रहे, वरना अयोध्या में राम मंदिर के लिए कानून लाने की मांग अब तक वीएचपी तेज कर चुकी होती। बीजेपी के रणनीतिकार अपने मुद्दों को असमय खत्म कर देने की गलती अतीत में दो बार कर चुके हैं। एक बार बाबरी मस्जिद ढहाने और दूसरी बार सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री न बनने देने पर अड़ जाने के रूप में। यह गलती वे तीसरी बार नहीं करने वाले। मुद्दे धीरे-धीरे पकें, उबाल मारकर चूल्हा ही न बुझा दें, फिलहाल यही उनकी रणनीति है। इसलिए संसद पर पकड़ के बावजूद उथल-पुथल मचा देने वाले किसी कानून की उम्मीद उनसे न करें।