उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की संख्या बढ़ाने का निर्णय लिया

केन्द्र सरकार ने हाल ही में क्योंकि वहां काम का दबाव अधिक है। क्या उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों पर काम का दबाव कम है जो उनकी स्वीकृत संख्या बढ़ाने के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया? उच्च न्यायालयों की तुलना में उच्चतम न्यायालय में लंबित मुकदमों की संख्या काफी कम है, लेकिन सरकार ने शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों की संख्या 30 से बढ़ाकर 33 करने का फैसला किया है। इस संबंध में संसद से विधेयक पारित होने के बाद उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या प्रधान न्यायाधीश सहित 34 हो जायेगी।
उच्च न्यायालयों के लिये न्यायाधीशों के 1079 स्वीकृत पद हैं। इनमें से अभी स्थाई न्यायाधीशों के 235 पदों सहित 409 पद रिक्त हैं। सरकार अगर आर्थिक सर्वेक्षण में किये गये सुझाव को स्वीकार करके न्यायाधीशों के 93 नये पदों का सृजन करने का भी निर्णय लेती तो इनकी संख्या शायद 1,172 हो जाती। ऐसा होने पर उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों के निपटाने की रफ्तार तेज हो सकती थी।
उच्चतम न्यायालय में इस समय न्यायाधीशों के स्वीकृत 31 पदों में से एक भी रिक्त नहीं है। अच्छा होता यदि सरकार एक बार उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के सभी पदों पर नियुक्तियां करके इसके लिये एक नया रिकार्ड अपने नाम कर लेती। अगर उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों का एक भी पद रिक्त नहीं हो या यह कहा जाये कि इन रिक्तियों पर तेजी से नियुक्तियां की जायें तो शायद इनमें लंबित मुकदमों का निपटारा तेजी से करना संभव होगा।
उच्चतम न्यायालय में इस समय 59,695 मुकदमे लंबित हैं। इनमे नियमित सुनवाई के मामलों की संख्या 20,713 है। इसके विपरीत, उच्च न्यायालयों में आज भी 43 लाख से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें 8,15,929 मामले तो दस साल से भी अधिक समय से फैसलों के इंतजार में हैं। उच्चतम न्यायालय में मुकदमों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई का अनुरोध सरकार द्वारा स्वीकार करना अच्छा कदमहै। यह भी कितना अजीब है कि अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर नियुक्तियों की गति तेज कराने के लिये देश की शीर्ष अदालत को कवायद करनी पड़ रही है जबकि यह काम राज्य सरकारों का है। अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के 5000 से अधिक पद रिक्त पड़े हैं और इनमें लंबित मुकदमों की संख्या करीब तीन करोड़ है। कितना अच्छा होता कि शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप करने की बजाय राज्य सरकारें और उच्च न्यायालय इस दिशा में स्वत: ही तेजी से कदम उठाते।
सरकार अगर अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने के लिये वास्तव में चिंतित है तो उसे उच्च न्यायालयों के साथ ही अधीनस्थ न्यायपालिका में भी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने और पहले से रिक्त पदों पर नियुक्तियां करने के काम को गति प्रदान करनी होगी। साथ ही अदालतों में बुनियादी सुविधायें बढ़ाने पर भी विशेष ध्यान देना होगा। इसके अलावा, उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद रिक्त होने से कम से कम छह महीने पहले ही ऐसे पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया भी शुरू की जानी चाहिए। अगर न्यायाधीशों के रिक्त पदों की संख्या न्यूनतम रखनी है तो इसके लिये उच्च न्यायालय की कोलेजियम को छह महीने पहले इसकी कवायद शुरू करनी होगी और मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल की संतुति की औपचारिकता के बाद अपनी सिफारिशें समय से उच्चतम न्यायालय भेजनी होंगी।
संसद ने 2008 में जब उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) कानून 1956 में संशोधन करके प्रधान न्यायाधीश के अलावा इसके न्यायाधीशों की संख्या 25 से बढ़ाकर 30 करने की मंजूरी दी थी तो उस समय 31 मार्च 2007 की स्थिति के अनुसार शीर्ष अदालत में 41,581 मुकदमे लंबित थे। संसद ने पहली बार 1956 में शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों की संख्या सात से बढ़ाकर 11 की थी। इसके बाद 1960में इनकी संख्या 14, वर्ष 1978 में 18 और 1986 में इनकी संख्या 26 की गयी थी।
उम्मीद है कि सरकार न्यायपालिका में सुधार के संबंध में आर्थिक सर्वेक्षण में दिये गये सुझावों पर भी विचार करेगी। आर्थिक सर्वेक्षण में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के साथ ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाने के बारे में भी बल दिया गया। इस समय, शीर्ष अदालत में सिर्फ 190 कार्य दिवस ही हैं जबकि उच्च न्यायालयों में औसतन 232 कार्य दिवस हैं। ऐसा होने पर उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने में काफी मदद मिलेगी।
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