उस दिन यह किस्सा गायक-कलाकार और संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद्मश्री शेखर सेन ने मुंबई के एक कार्यक्रम में सुनाया था। बात लगभग पैंतीस-छत्तीस साल पुरानी है। धर्मयुग के तत्कालीन संपादक धर्मवीर भारती के सुझाव पर तब के उभरते हुए कलाकार शेखर ने 'पाकिस्तान के हिंदी कवियोंÓ की रचनाओं पर आधारित एक कार्यक्रम तैयार किया था और कुछ अखबारों में इस बारे में सूचना भी छपी थी। इसी सूचना के आधार पर कुछ शिव सैनिकों ने शेखर सेन को धमकाया कि वे पाकिस्तान से जुड़ा कोई कार्यक्रम करने की हिमाकत न करें। बड़ी मुश्किल से शेखर उन्हें समझा पाये थे कि उस कार्यक्रम में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। उन्होंने पाकिस्तानी कवियों की कुछ रचनाएं उन्हें सुनायीं भी। अधिकतर रचनाएं कृष्ण-भक्ति से संबंधित थीं। शिव सैनिक तो किसी तरह संतुष्ट होकर चले गये, पर बात समाप्त नहीं हुई थी।
एक-दो दिन बाद ही शेखर के पास एक ऊंचे पुलिस अफसर का बुलावा आ गया। उन्हें कानून-व्यवस्था की चिंता थी, और उनका कहना था शेखर सेन नाहक क्यों ऐसा कार्यक्रम करना चाहते थे। पर शेखर उन्हें यह आश्वासन देने में कामयाब हो गये कि वे शुद्ध साहित्यिक रचनाओं पर आधारित कार्यक्रम है और इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं होगा। कार्यक्रम हुआ और काफी सराहा भी गया।
शेखर सेन द्वारा सुनाया गया यह किस्सा मुझे एक पत्र पढ़कर याद आया। यह पत्र कुछ मराठी अखबारों में छपा होगा, पर मैंने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद एक प्रतिष्ठित पत्रिका में पढ़ा है। पत्र लेखक ने मुंबई और पुणे की दो घटनाओं का जिक्र किया है जो बीते अगस्त माह में, स्वतंत्रता दिवस के पांच-सात दिन पहले ही घटी थीं। मुंबई वाली घटना दिल्ली के जन नाट्य मंच (जनम) द्वारा खेले जाने वाले नाटक 'तथागतÓ से जुड़ी है। यह नाटक मुंबई में तीन दिन में आठ जगहों पर खेला गया था। यह नुक्कड़ नाटक भी है और सभागार में भी खेला जाता है। जब नाटक मुंबई के अम्बेडकर भवन में खेला जा रहा था तो पुलिस ने वहां पहुंचकर पूछताछ की। दूसरे ही दिन पुलिस वाले फिर पहुंचे। इस बार वे कैमरा लेकर आये थे। सेट के चित्र खींचे और नाट्य मंडली के नेता के बारे में पूछताछ की गयी। स्टूडियो के मैनेजर से भी पूछा गया कि उसने वह नाटक खेलने की अनुमति क्यों दी। नाटक देखने आये लोगों के भी फोटो खींचे गये। नाटक के दौरान भी पुलिस वाले उपस्थित थे। नाटक तो हो गया, पर माहौल दहशत भरा ही रहा।
दूसरी घटना पुणे की है, जहां 15 अगस्त की आधी रात के बाद एक होटल में ठहरे मुंबई के एक थियेटर ग्रुप के लोगों को पुलिस ने जगाया। ग्रुप वाले पुणे विश्वविद्यालय के ललित कला केंद्र में हिंदी नाटक 'रोमियो रविदास और जुलियट देवीÓ नामक नाटक खेलने आये थे। पुलिस वालों ने समूह के नेता यश खान के बारे में पूछताछ की और उसके चार सहयोगियों से भी जानकारी ली। दो कमरों की तलाशी भी ली गयी। पुलिस ने कुछ बताया तो नहीं, पर स्पष्टत: उन्हें यश खान नामक व्यक्ति से पूछताछ करनी थी। नाटक से जुड़े पांचों युवाओं में डर पैदा होना स्वाभाविक था।
यह सही है कि मुंबई और पुणे की इन दोनों घटनाओं में किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, पर क्या यह भी सही नहीं है कि ऐसी घटनाएं कला की दुनिया में अकारण ही दहशत फैलाती हैं? आखिर क्यों पुलिस को यह सब करना पड़ा? क्या इसलिए कि इनमें से एक घटना से सफदर हाशमी की पत्नी द्वारा चलाया जा रहा थियेटर ग्रुप जुड़ा हुआ था? ज्ञातव्य है कि वामपंथी नाटककार सफदर हाशमी की उनके विचारों के कारण हत्या कर दी गयी थी। और उनकी पत्नी भी वामपंथी विचारों की हैं। दूसरी घटना का रिश्ता एक युवा, यश खान से है, क्या इसलिए वह संदेह के घेरे में है?
पुणे और मुंबई में थियेटर से जुड़ी इन घटनाओं का पैंतीस-छत्तीस साल पहले घटी शेखर सेन वाली घटना से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन क्या 'पाकिस्तानÓ, 'वामपंथÓ शब्द इस नाट्य-प्रकरण के संदर्भ में कुछ संकेत नहीं दे रहे? आखिर क्यों डरती है कोई भी सत्ता साहित्य या कला या संगीत से? अथवा क्यों हम साहित्य, कला और संगीत को, सांस्कृतिक गतिविधियों को, राजनीति से अलग करके नहीं देख सकते? हमारी राजनीति में, और राजनीतिक सोच में, कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी से डरता है। हमारे संविधान-निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर, गहन विचार-विमर्श के बाद, अभिव्यक्ति की आज़ादी को स्वतंत्र भारत के हर नागरिक का अधिकार माना था। जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि धर्म, जाति, भाषा आदि के नाम पर किसी के साथ, किसी भी प्रकार की नाइंसाफी नहीं होनी चाहिए। फिर क्यों इस तरह की घटनाएं होती हैं अथवा होने दी जाती हैं? पैंतीस साल पहले क्यों किसी शेखर से पूछा गया था कि वह पाकिस्तानी शायरों के साहित्यिक लेखन पर आधारित कार्यक्रम क्यों कर रहा है? क्यों किसी यश खान को सुरक्षा के नाम पर संदेह के घेरे में लिया जाता है? और क्यों 'जनमÓ के कलाकारों का किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा होना व्यवस्था को खतरनाक लगता है?
पुणे और मुंबई में नाटक की दुनिया से जुड़ी जिन दो घटनाओं का जिक्र मराठी अखबारों में छपे पत्र में किया गया है, वे कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से ही जुड़ी हैं। और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी महाराष्ट्र में दो प्रमुख विचारकों-साहित्यकारों की हत्या इसलिए कर दी गयी थी कि किसी को उनकी विचारधारा पसंद नहीं थी। तमिलनाडु में एक साहित्यकार को इसीलिए 'अपनी साहित्यिक आत्महत्याÓ की घोषणा करनी पड़ी थी कि उसके लेखन से एक वर्ग को शिकायत थी!
'विचारÓ का सामना 'हथियारÓ या फिर 'अधिकारÓ से करने की प्रवृत्ति किसी भी दृष्टि से जनतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं है। इसी तरह, असहिष्णुता का समाज में फैलना भी एक खतरनाक चेतावनी है। इस चेतावनी को नजऱअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। हमारा संविधान सबसे बड़ा धर्म-ग्रंथ है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसी ग्रंथ के सम्मुख सिर नवा कर 'नया भारतÓ रचने की शपथ ली थी। उस नये भारत में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए; धर्म और भाषा के नाम पर किसी की भावनाओं को आहत नहीं किया जाना चाहिए; विचारों के आधार पर किसी की राष्ट्रभक्ति पर उंगली नहीं उठनी चाहिए।
मुंबई और पुणे की दोनों घटनाएं बहुत छोटी लग सकती हैं, पर जनतांत्रिक मूल्यों के संदर्भ में इनका महत्व बड़ा है। इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए—कुछ सीखा ही जाना चाहिए इनसे।
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अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरेदारी का औचित्य