शिकवे-शिकायतें और मान-मनोहर


जिस तरह दीवाली के आसपास घरों की सफाई प्रारम्भ हो जाती है और कूड़ा-कर्कट बुहारने में सब जुट जाते हैं, वैसे ही चुनावों का ऐलान होते ही नेतागण अपने-अपने चुनाव क्षेत्र और वोटरों के दिलों में लगे नाराजग़ी के जाले झाडऩे, संबंधों पर चढ़ी धूल की परतों को हटाने निकल पड़ते हैं। चुनावी वेला में नेता घुटनों के बल आ जाते हैं और वोटर एडिय़ां तक उठा लेते हैं और इन दिनों वे ठीक वैसा ही आचरण करते हैं जैसे किसी लड़के के विवाह में घर का बटेऊ। पिताश्री तो बेचारे जंवाई जी की चिरौरी करने में ही रह जाते हैं। फल यह होता है कि कुछ तो मान जाते हैं परन्तु कुछ बिफरे ही रहते हैं।
कई वोटर दांतले बटेऊ की तरह होते हैं, जिनके न हंसने का पता चलता है न रोने का। वोटर की गर्दन यूं ऐंठ जाती है मानो बरसात में खाट की दामन अकड़ गई हो। अकड़े हुये ऐसे ही किसी नेता से मतदाता ने शायरी के अन्दाज़ में पूछ लिया—
'कभी प्यासे को वाटर पिलाया नहीं, अब क्वाटर पिलाने से क्या फायदाÓ
वोटर का यह सवाल सुनकर चाहे नेता की सिट्टी-पिट्टी भले गुम हो गई हो, लेकिन उसने संभलते हुये बात को सम्भालने के अंदाज़ में शायराना उत्तर दे मारा—
'तू मुझसे चाय जैसी मोहब्बत तो कर,
मैं बिस्कुट जैसा न डूब जाऊं तो कहना।Ó
उंगली चाहे किसी व्यक्ति विशेष पर उठानी हो और चाहे चुनावों में बटन दबाने के लिये, पर बेहद सोच-समझकर ही उठानी चाहिए। एक अकेली उंगली पर लोकतंत्र का सारा जिम्मा है। उंगली ने जऱा-सी चूक की तो पांच साल कराहना पड़ता है। गलत बटन दबाकर उंगली तो चाहे फिर भी सलामत रह जाये पर लोकतंत्र की मूल नीतियों का कचूमर निकल जाता है।
आज के ज़माने में डेढ़-दो हजार में गधे भी नहीं मिलते और नेता हमारे वोटरों को इतने में खरीद कर अपने वारे-न्यारे कर जाते हंै। कुछ भी कहो, नेता पैदल चलकर या रथ अथवा गाड़ी में पूरा चुनाव क्षेत्र नाप देते हैं, गली-गली की धूल फांकते हैं। मगर उन आरामपरस्तों का क्या करें जो सारा दिन गलियों के चक्कर लगाते हैं, पर वोट डालने नहीं जाते।