कठिन शब्दों को भी सीखें


कई लोग 'क्लिष्टÓ शब्दों से बचने की सलाह देते हैं। ऐसी सलाह देने वालों को 'क्लिष्टÓ आसान लगता है। स्तरीय हिन्दी से आप में से अधिकांश बिदकने वाले लोगों की भी कहानी वैसी ही है जो क्लिष्ट जैसे शब्द को तो हिन्दी से अपनी आलस्य जनित दूरी बनाये रखने के ढाल स्वरूप सहज ही सीख लेते हैं और धड़ल्ले से आत्मरक्षा में इसका इस्तेमाल करते फिरते हैं। मगर 'स्तरीयÓ हिन्दी सीखने की ओर एक भी कदम नहीं उठाते! ठीक है हिन्दी के बोलचाल की भाषा के हिमायती बहुत हैं, मैं भी हूं! तुलसी ने तो यहां तक कह डाला—भाषा भनिति भूति भल सोयी, सुरसरि सम सब कर हित होई! (भाषा, कविता यश-प्रसिद्धि वही अच्छी है, जिससे गंगा नदी की भांति सबका हित हो!) मगर ख़ुद तुलसी के भाषाई पांडित्य पर क्या कोई उंगली उठा सकता है? वे संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान थे! संदेश साफ़ है, किसी भी भाषा को गहराई तक जानिए मगर जन सामान्य के लिए उनसे उनकी ही बोली-भाषा में संवाद कीजिये! इन दिनों हिंगलिश का बोलबाला है! पर इससे हिन्दी के रूप, सौन्दर्य और भाषाई शुचिता का कितना नुकसान हो रहा है, क्या भाषा विज्ञानी बता सकेंगे? मैंने देखा है कि विज्ञता के अभाव में सरल शब्दों का इस्तेमाल करने वाले लोग भाषा का कबाड़ा कर देते हैं।
बचपन में शादी के निमंत्रण कार्डों का यह मजमून आज भी रटा हुआ-सा है—भेज रहा हूं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को, हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को। कितनी सुंदर अभिव्यक्ति है मगर अब इस तरह का भाषाई व्यवहार थोड़ा आउटडेटेड-सा है! एक तो अब हिंदी में कार्ड ही कम छपने लगे हैं, दूसरे हिंदी में छपने वाले कार्डों के बोल ही अलग होते हैं। मगर भावों की सुन्दरता आज भी इन पंक्तियों में वैसी ही है! विवाह कार्ड के कुछ और मजमून देखिए, 'ज्के पावन परिणयोत्सव की मधुर बेला पर पधार कर अपने स्नेहिल आशीर्वाद से नवयुगल को अभिसिंचित कर हमें अनुगृहीत करें..Ó या फिर 'ज्के पाणिग्रहण ( कैसा क्लिष्ट शब्द है?) संस्कार में आनंद और उल्लास के इस मांगलिक अवसर पर उपस्थित होकर हमें आतिथ्य का सुअवसर प्रदान करने की कृपा करेंज्।Ó इनमें क्लिष्ट नजर आ रहा है या भाषाई आनंद। यदि हम भाषा को क्लिष्टता के सतही आधार पर खारिज करेंगे तो शायद हमें अपने कई अनुष्ठानों, कार्यों से भी तौबा करना या काफी बदलाव करना होगा! इसलिए कठिन से घबराएं नहीं।