बाल अधिकार : कितना कुछ बदला है


यह अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते का तीसवां वर्ष है। 20 नवम्बर, 1989 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने 'बाल अधिकार समझौताÓ पारित किया था।
यह संधि ऐसा पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता है जो सभी बच्चों के नागरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों को मान्यता देता है। इस समझौते को विश्व के 193 राष्ट्रों ने हस्ताक्षर करते हुए अपने देश में सभी बच्चों को जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, संपति, योग्यता आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के संरक्षण देने का वचन दिया है। केवल दो राष्ट्रों अमेरिका और सोमालिया ने अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। बाल अधिकार समझौते पर भारत ने 1992 में हस्ताक्षर कर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की।
बच्चों के ये अधिकार चार मूल सिद्धांतों पर आधारित हैं-जीने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास तथा  सहभागिता का अधिकार। अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के 30 साल का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है, हालांकि यह दुनिया के पैमाने के सर्वाधिक सर्वस्वीकृत मानवाधिकार समझौता है। लेकिन इस करार को तकरीबन हर देश से मंजूरी मिल जाने के बावजूद वैश्विक स्तर पर अभी भी बच्चों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। अभी भी हम ऐसी दुनिया नहीं बना पाए हैं, जो बच्चों के हित में और उनके लिए सुरक्षित हो। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की रिपोर्ट में चेताया गया है कि वर्ष 2017 से 2030 के बीच दुनिया के पैमाने पर पांच साल से कम उम्र के 6 करोड़ से ज्यादा बच्चों की मौत ऐसी वजहों से हो सकती हैं, जिन्हें टाला जा सकता है। आज मानव तस्करी के पीडि़तों में करीब एक तिहाई बच्चे हैं।
युद्ध और सशस्त्र संघर्ष से भी सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे ही हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि 2018 में सशस्त्र संघर्ष के दौरान दुनिया भर में करीब 12 हजार बच्चे या तो मारे गए हैं, या अपंगता के शिकार हुए। दुनिया भर में बच्चे पुराने खतरों से तो जूझ ही रहे हैं, उन्हें नये खतरों का सामना भी करना पड़ रहा है। स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा जैसी परंपरागत चुनौतियों के साथ जलवायु परिवर्तन, साइबर अपराध जैसी नई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। भारत के संदर्भ में बात करें तो समाज और सरकारों का बच्चों के प्रति नजरिया उदासीन बना हुआ है। हालांकि हमारे देश में सरकार की तरफ से तो फिर भी बच्चों  के पक्ष में सकारात्मक पहल की गई हैं, लेकिन एक समाज के रूप में हम अभी भी बच्चों और उनके अधिकारों को लेकर गैर-जिम्मेदार और असंवेदनशील बने हुए हैं।
एक राष्ट्र और समाज के रूप में हम अपने बच्चों को हिंसा, भेदभाव, उपेक्षा, शोषण और तिरस्कार से निजात दिलाने में विफल रहे हैं। शिक्षा की बात करें तो संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के  अनुसार जहां 1994 में भारत की कुल जीडीपी का 4.34 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता था, वहीं 2010 में घट कर 3.35 प्रतिशत रह गया है। जिंदा रहने के हक की बात करें तो ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार विश्व के कुल अविकसित बच्चों का एक तिहाई हिस्सा हमारे देश भारत में है। बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को देखें तो देश में बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक दशक (2007 से 2017) के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में जबरदस्त तेजी देखने को मिली है, और यह आंकड़ा 1.8 से बढ़कर 28.9 फीसद तक जा पहुंचा गया है, जो कि हमारे देश में बच्चों के असुरक्षा के भयावह स्थिति को दर्शाता है।
इसी प्रकार से बाल लिंगानुपात की बात करें तो देश में 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट जारी है। वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी, वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 हो गया। हालांकि यूएनसीआरसी स्वीकार करने के बाद भारत ने कई नये कानून, नीतियां और योजनाए बनाई हैं।
लेकिन भारत को अभी भी बाल अधिकार संधि के तहत किए गए वादे पूरा करने के लिए लंबा सफर तय करना है। बच्चों को अधिकार देने के लिए और अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण एवं माहौल बनाने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र संघ बाल के 30 साल पूरे होने पर आज एक वैश्विक बिरादरी के तौर पर हमें इस संधि में किए गए वादों को नये संकल्पों के साथ अपनाने की जरूरत है, जिसमें जलवायु परिवर्तन, साइबर अपराध, बढ़ती असमानता और असहिसुष्णता जैसी नई चुनौतियों से निपटने के उपाय भी शामिल हों।