भेदभाव का विकासभारत से जुड़ी विकास की तमाम कहानियों के बावजूद सचाई यह है कि सामाजिक विकास में हमारा मुकाम दुनिया में अब भी काफी नीचे है। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की 50वीं सालाना बैठक से पहले जारी 'ग्लोबल सोशल मोबिलिटी इंडेक्सÓ की 82 देशों की सूची में भारत को 76वां स्थान दिया गया है। डेनमार्क इसमें टॉप पर है, इसके बाद नॉर्वे, फिनलैंड, स्वीडन और आइसलैंड का नंबर है। यह इंडेक्स तैयार करने के लिए जिन प्रमुख बातों को ध्यान में रखा गया है, वे हैं- स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीक, रोजगार, सुरक्षा और सांस्थानिक स्थिति।
भारत को जिन बातों का खास ध्यान रखने की हिदायत दी गई है, उनमें सामाजिक सुरक्षा और समान काम के लिए समान वेतन शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 'अगर कोई देश ऐसा माहौल तैयार करने में सफल रहता है, जहां हर किसी को अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से ऊपर उठकर अपनी क्षमता साबित करने का मौका मिलता है, तो इसका न सिर्फ समाज को सीधा लाभ होगा, बल्कि अर्थव्यवस्था को हर साल अरबों डॉलर का फायदा भी होने लगेगा।
रिपोर्ट के अनुसार सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए ऐसी उपयुक्त परिस्थितियां सिर्फ कुछेक अर्थव्यवस्थाओं में ही मौजूद हैं जिनमें चीन, अमेरिका, भारत, जापान और जर्मनी शामिल हैं। साफ है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन के जरिए अपना विकास करने की पूरी संभावनाएं मौजूद हैं। आजादी के वक्त हमारा समाज सामंती संरचना में जकड़ा हुआ था। सामाजिक बंधनों के कारण हर किसी के समान रूप से विकसित होने की गुंजाइश नहीं के बराबर थी। मगर हमारे संविधान ने हर किसी को बराबरी के अधिकार दिए और सरकारों को बिना किसी भेदभाव के सबके हित में काम करने का दायित्व सौंपा। बाद में देश में आरक्षण और इस तरह की कई अन्य नीतियां भी अपनाई गईं जिनसे वंचित तबकों को आगे आने के अवसर मिले। इसका फायदा दिख रहा है, लेकिन विकास का लाभ आज भी हर किसी तक नहीं पहुंचा है और सामाजिक-आर्थिक स्तर पर एक गहरी खाई साफ नजर आती है।
इसकी कुछ जवाबदेही हमारे देश में पिछले तीन दशकों से अपनाई गई व्यवस्था पर जाती है, जिसमें सरकारों का रोल कम होता गया है और ज्यादातर काम प्राइवेट सेक्टर के हाथ में जा चुका है। इससे विकास की रफ्तार तो बढ़ी है, लेकिन साथ में यह नुकसान भी हुआ है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सुविधाओं के दो स्टैंडर्ड बन गए हैं। निजी क्षेत्र द्वारा दी जा रहीं क्वालिटी सुविधाएं महंगी होने के चलते बेहतर आर्थिक स्थिति वालों को ही मिल पाती हैं। इस तरह साधन संपन्न तबका विकास का ज्यादा लाभ लेने की स्थिति में पहुंच गया है, जबकि सरकारी साधनों पर आश्रित बाकी समाज दिनोंदिन पिछड़ता ही जा रहा है। इस बुनियादी बीमारी का इलाज किए बिना, सिर्फ बीच-बीच में किए जाने वाले राहत उपायों के सहारे हालात कुछ खास नहीं बदलने वाले।
भेदभाव का विकास