एक सरकारी अस्पताल में एक माह में सौ नवजातों की मौत पर सामने आई

संवेदनहीन तंत्रराजनीति कितनी निष्ठुर होती है, इसका पता कोटा राजस्थान के एक सरकारी अस्पताल में एक माह में सौ नवजातों की मौत पर सामने आई प्रतिक्रियाओं से चलता है। राज्य में कांग्रेस की सरकार है तो भाजपा मुखर हमलावर है। जब गोरखपुर के अस्पताल में ऐसी ही बच्चों के बड़ी संख्या में मरने की खबर आई तो कांग्रेस ने राष्ट्रव्यापी बवाल किया था। अब सामने आंकड़ा है और निशाने पर राज्य सरकार है। बल्कि भाजपा व बसपा सुप्रीमो मायावती ने प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रियंका गांधी पर निशाना साधा है कि सीएए के विरोध में हुई हिंसा में मारे गये लोगों के घर-घर जाकर संवेदना प्रकट करने वाली प्रियंका सौ मांओं की कोख सूनी होने पर खामोश क्यों है? बहरहाल, निर्लज्ज राजनीति यह नहीं बताती कि मौत का यह आकंड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ क्यों रहा है? क्यों दूर-दराज के इलाकों से रक्त जमाती सर्दी में बीमार बच्चों को लेकर मां-बाप को कोटा के जेके लोन अस्पताल आना पड़ता है? क्यों अब जाकर गायत्री परिवार की मदद से स्थानीय विधायक को कुछ हीटर व कंबल अस्पताल को देने पड़े हैं? समाज इतना निष्ठुर क्यों है कि साल-दर-साल कोटा के इस अस्पताल में हजारों बच्चों के मरने का क्रम जारी रहने के बावजूद ब्लोअर-हीटर क्यों नहीं उपलब्ध कराये गये ताकि हाड़ कंपाती सर्दी में नवजात को मां के गर्भ का तापमान इस बाहरी दुनिया में हासिल हो सके। इन मौतों का खुलासा ऐसे वक्त में हुआ जब राजस्थान सरकार अपने एक साल पूरे होने का जश्न मना रही है। साथ ही 'निरोगी राजस्थानÓ कार्यक्रम की शुरुआत की है। फिर जिस तरह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश की है कि मौतों का यह सिलसिला भाजपा सरकार के दौरान से ही अनवरत जारी है, वह सत्ताधीशों को बेनकाब करता है कि शासन-प्रशासन जवाबदेही के नाम पर बड़े हादसों का इंतजार क्यों करता है।
दरअसल, जिस अस्पताल में नवजात बच्चों का मरने का सिलसिला जारी है, वहां तेज हवा से शरीर को भेदती खिड़कियां खुद बताती हैं कि बच्चें क्यों मरते हैं। अस्पताल में वेंटिलेटर-वार्मर का खराब होना बताता है कि अस्पताल का प्रशासन कितना लापरवाह है। फिर दलील दी जा रही है कि बच्चे गंभीर अवस्था में यहां रैफर किये गये हैं। एक बात यह भी है कि कोटा के इस अस्पताल में हाड़ोती संभाग के अन्य इलाकों बूंदी, झालावाड़ व बारां आदि से भी मरीज आते हैं। जाहिर-सी बात है कि इन इलाकों के प्राथमिक व माध्यमिक अस्पताल इस लायक नहीं कि बीमार बच्चों का इलाज हो सके। यही वजह है कि इन दूर-दराज के इलाकों से आने वाले नवजात बच्चे ठंड से मौत के मुंह में चले जाते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कोटा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला का संसदीय क्षेत्र भी है। इसके बावजूद चिकित्सातंत्र कोताही बरत रहा है। दरअसल, एक समस्या यह भी है कि सरकारें लोकलुभावनी योजनाओं की तो घोषणा कर देती हैं, मगर अस्पताल के लिए आवश्यक उपकरण व साधन उपलब्ध नहीं कराती। राज्य में मुफ्त दवा स्कीम लागू किये जाने के बाद अस्पतालों में मरीजों का दबाव बेहिसाब बढ़ा है। फिर विडंबना यह कि अस्पताल में पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं। दरअसल, मौसम के अलावा अस्पतालों की अव्यवस्था व आवश्यक संसाधनों का अभाव भी मरीजों की मौत का सबब बनता है। डॉक्टर देहाती क्षेत्रों में जाना नहीं चाहते, जिसके चलते मरीजों का दबाव शहरी अस्पतालों पर बढ़ता है। निजी अस्पतालों में मरीजों की खाल खींचने की स्थितियां सरकारी अस्पतालों में बदतर हालातों के बावजूद यहां आने को बाध्य कर देती हैं। सवाल सिर्फ कोटा या गोरखपुर में बच्चों की मौतों का नहीं है। यदि ईमानदारी से देश के अन्य अस्पतालों में मृत्युदर का आंकड़ा सामने लाया जाये तो भयावह तस्वीर उभरेगी। गाल बजाने वाले नेताओं को इस गंभीर होती समस्या के स्थायी व कारगर समाधान के बारे में सोचना चाहिए।
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