घोलकर ज़हर खुद की फिजांओं मेंज्


जितने झूठे पर्यावरण प्रेमी हिन्दुस्तान में हैं, उतने पूरी दुनिया में नहीं होंगे। स्वच्छता पर सिर्फ भाषण देने और गोष्ठियां रचने से वायुमंडल में एक जर्रा भी टस से मस नहीं होता। इन्हीं गोष्ठियों में प्लास्टिक की बोतलों में पानी पिलाया जाता है और कागज़ काले किये जाते हैं। हम सब के समारोहों में पटाखे भी चलते हैं, प्लास्टिक की पत्तलों व गिलासों में दावतें होती हैं, बेशुमार सिगरटें भी फूंकी जाती हैं, माइक भी कान फोड़ते हैं। पर्यावरण का बचाव हमारी आदतों में बदलाव से संभव है किंतु बदलाव की लकीर स्वयं खींचने की बजाय हम औरों की तरफ निहारते हैं और दूसरे लोग हमारी तरफ देखते हैं। परिणाम साफ है कि न वे बदलते हैं और न हम। इतना ही कहना बनता है कि—
घोलकर ज़हर खुद ही हवाओं में
हर शख्स मुंह छिपाये घूम रहा है।
कुछ औपचारिकतायें तो अपने यहां कमाल की हैं। हमारे बाइक और कारें सिर्फ तब तक ही प्रदूषण फैलाती हैं जब तक कि 100 रुपये देकर हम पॉल्यूशन सर्टिफिकेट नहीं बनवा लेते। निरुत्तरित करने वाला सवाल यह है कि क्या प्रदूषण पत्र लेने के बाद हमारे वाहन ऑक्सीजन छोडऩे लग जाते हैं  सिर्फ ऑड-ईवन कोई करामात नहीं कर सकता जब तक कि गाडिय़ों के प्रदूषण का चैक सिस्टम सशक्त नहीं हो जाता।
धूल, धुआं, धुन्ध, ध्वनि, वायु, जल आदि प्रदूषण आज नहीं तो कल काबू में आ जायेंगे। और नहीं भी आयेंगे तो भी आने वाले चार-पांच सौ सालों तक जीवन जैसे-तैसे चलता ही रहेगा। परन्तु जो कचरा और प्रदूषण वैचारिक और भावनात्मक धरातल पर उग रहा है, उसका कोई सोल्यूशन दूर-दूर तक भी नहीं है। ये लोगों की रग-रग ज़हर उगल रही हैं। इस गन्दगी का असर तत्काल प्रभावित कर रहा है। यही कचरा लोगों के रास्ते रोक रहा है, कहीं पटरियां उखाड़ रहा है तो कहीं धर्म के नाम पर हिंसा को अंजाम दे रहा है। दिल्ली की हवा में सांस लेना 20 सिगरेट पीने जैसा खतरनाक बताया जा रहा है। इस पर एक मनचले का कहना है कि यदि दिल्ली के पानी में शराब जैसे गुण आ जायें तो इसे आधिकारिक तौर पर स्वर्ग घोषित किया जा सकता है।