संकट में बीएसएनएल

पब्लिक सेक्टर की टेलिकॉम कंपनी बीएसएनएल का वित्तीय संकट बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है। कंपनी के पास अपने 1 लाख 76 हजार कर्मचारियों को जून की सैलरी देने के लिए भी पैसे नहीं हैं। इसके लिए उसने सरकार से 850 करोड़ रुपये मांगे हैं। छह महीने के भीतर दूसरी बार ऐसी नौबत आई है। इससे पहले कर्मचारियों को फरवरी की सैलरी मार्च के तीसरे हफ्ते में मिली थी। पिछले कई सालों से बीएसएनएल के खर्चे लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन उसकी आमदनी बढऩे के बजाय घटती जा रही है।
बताया जा रहा है कि अभी उस पर करीब 13 हजार करोड़ रुपये की देनदारी चढ़ी हुई है। दूरसंचार विभाग ने बीएसएनएल से सभी तरह के ठेके और खरीदारी के ऑर्डर जारी करने का काम रोक देने को कहा है। पिछले हफ्ते कंपनी के इंजीनियरों और लेखा पेशेवरों के एक संघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कंपनी के पुनरुद्धार के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया। उनका कहना है कि बीएसएनएल पर कोई कर्ज नहीं है और इसकी बाजार हिस्सेदारी भी बढ़ रही है, ऐसे में कंपनी को फिर से खड़ा किया जाना चाहिए। साथ ही जो कर्मचारी अपना काम ठीक से नहीं कर रहे, कंपनी में उनकी जवाबदेही तय की जानी चाहिए। दरअसल दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों के आने के बाद से बीएसएनएल तकनीकी मामलों में उनसे पिछड़ती गई। फिर साल 2016 में जियो के आने के बाद से टेलिकॉम कंपनियों में डेटा पैक और टैरिफ सस्ता करने की जो जंग छिड़ी, उसमें कई निजी टेलिकॉम कंपनियां बाजार छोडऩे पर मजबूर हो गईं और बीएसएनएल की तो कमर ही टूट गई। साल 2018 में कंपनी को करीब 8,000 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। 



बीएसएनएल की कुल आमदनी का करीब 55 फीसदी कर्मचारियों के वेतन पर खर्च होता है। हर साल इस बजट में 8 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाती है। निजी क्षेत्र की कंपनियां जहां 5जी की तैयारी में हजारों करोड़ रुपये निवेश कर रही हैं वहीं बीएसएनएल बाजार में बने रहने के लिए सरकार की तरफ से 4जी स्पेक्ट्रम आवंटित किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है। कंपनी ने सरकार से अपने पास मौजूद जमीन बेचकर नकदी जुटाने की मंजूरी मांगी लेकिन सरकार की तरफ से इस पर कोई फैसला नहीं लिया गया। अभी की स्थिति में बीएसएनएल की परेशानियों की अनदेखी नहीं की जा सकती क्योंकि इससे लाखों लोगों का जीवन जुड़ा है। सचाई यह है कि बीएसएनएल ही नहीं, देश के कई सार्वजनिक उपक्रमों की हालत अभी बेहद खस्ता है। पिछले साल कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि देश की 157 सरकारी कंपनियां एक लाख करोड़ से भी ज्यादा के घाटे में डूबी हैं। सरकार का रवैया सार्वजनिक उपक्रमों से पीछा छुड़ाने का ही है लेकिन वह कर्मचारियों के विरोध से बचना भी चाहती है। इनके बारे में सख्त फैसले सही वक्त पर लिए जाने चाहिए ताकि राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी न हो और कर्मचारियों का भविष्य भी दांव पर न लगे।