अंतरिक्ष में सुरक्षा चुनौती और स्पेस फोर्स

 



पुष्परंजन
यह बात यूरोप के लिए ज़ेरे बहस नहीं होती यदि फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों अंतरिक्ष में सुरक्षा बल की अवधारणा को आगे नहीं बढ़ाते। बीते शनिवार को मैक्रों ने राष्ट्रीय दिवस 'बैस्टिल डेÓ के अवसर पर ऐसे बल को तैयार करने की घोषणा की। मैक्रों के अनुसार, इस स्पेस फोर्स का गठन सितंबर 2019 तक कर देना है। फ्रांस चाहता है कि इस फोर्स के माध्यम से वह बाह्य अंतरिक्ष की सुरक्षा करे, साथ ही दुनिया को संदेश दे कि सुरक्षा तकनीक में हम बाक़ी विकसित देशों से पीछे नहीं हैं।
मैक्रों कुछ अन्य वजहों से भी स्पेस फोर्स के वास्ते बेताब थे। 27 जून 2019 को ब्रसेल्स में नाटो प्रतिरक्षा मंत्रियों की बैठक में स्पेस फोर्स की तैयारी का अनुमोदन किया गया था। पिछले साल डोनाल्ड ट्रंप ने स्पेस फोर्स को और धारदार बनाने का निर्देश दिया। मगर, क्या ऐसी घोषणा की एक और वजह भारत की अंतरिक्ष में बढ़ती ताक़त है? संयोग की बात है कि फ्रेंच प्रेसिडेंट यह ऐलान उस समय कर रहे थे जब भारत चंद्रयान-2 अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी में था।
ट्रंप ने यूएस कांग्रेस को स्पेस फोर्स की ज़रूरत की वजह यह बताई कि इसके माध्यम से हम सबसे पहले सैटेलाइट को हैक करने से रोक पायेंगे। अमेरिकी उपग्रहों के हैक होने का ख़तरा चीनी सैटेलाइट हैकरों की वजह से अधिक बढ़ गया है। इससे सिफऱ् पेंटागन नहीं, उपग्रहों से संचालित अमेरिका के दूसरे अदारे भी ख़तरा महसूस करते हैं। यूएस स्ट्रैटेजिक कमांड (स्टार्टकॉम) की शुरुआत 1985 में की गई थी। 2002 में यूएस एयरफोर्स स्पेस कमांड में इसका विलय कर दिया गया। 18 जून 2018 को एक बार फिर ट्रंप प्रशासन ने इसकी घोषणा की कि अमेरिका अलग से स्पेस फोर्स का गठन करेगा, जिसे 2020 तक कार्यशील कर दिया जाएगा। ऐसा लगता है कि चुनाव से पहले, राष्ट्रपति ट्रंप अंतरिक्ष के वास्ते गठित सेना पर अपनी छाप छोडऩा चाहते हैं। क्या उसकी वजह रूसी हैकरों से बचना भी है? इस संशय से अभी पर्दा हटा नहीं है कि पिछले राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हैकरों ने छेड़छाड़ की थी।
स्पेस फोर्स के मामले में रूस काफी पहले से सक्रिय रहा है। बल्कि सोवियत रूस के समय से स्पेस फोर्स में लगातार बदलाव किये गये। 1967 में मिसाइल रोधक और अंतरिक्ष सुरक्षा बल (वोयस्का प्रोतिवोराकेतनोय) का गठन किया गया था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, 10 अगस्त 1992 को रशियन स्पेस फोर्स का गठन किया गया। 1 जून 2001 को इस बल को रूसी सेना से अलग कर एक स्वतंत्र कमांड बनाया गया। बावज़ूद इसके, रूस ने समय-समय पर अंतरिक्ष सुरक्षा की ज़रूरतों के अनुरूप इसमें बदलाव किये। 1 अगस्त 2015 को रशियन एयरोस्पेस फोर्स का दोबारा से पुनर्गठन किया गया। इसे ध्यान से समझने की आवश्यकता है कि अमेरिकी और रूसी शासन ने समय-समय पर अंतरिक्ष सुरक्षा में बड़े बदलाव किये। इसकी वजह दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा थी। बल्कि यों कहें कि अंतरिक्ष में भी प्रतिस्पर्धा 90 के दशक से प्रारंभ थी।
यह जानना दिलचस्प है कि आज जिस जीपीएस सिस्टम का हम इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे 1973 में सबसे पहले अमेरिकी फोर्स ने विकसित किया था। 1995 में जीपीएस सिस्टम को पूर्ण रूप से ऑपरेशनल कर दिया गया था। अमेरिकी स्ट्रैटेजिक कमांड (स्टार्टकॉम) ने पूरे दस साल जीपीएस सिस्टम का इस्तेमाल कर अंतरिक्ष में अपनी धाक जमाये रखी। 1999 के कारगिल युद्ध में भारत ने अमेरिका से जीपीएस सिस्टम की मदद मांगी थी ताकि पाकिस्तानी फोर्स की पोजिशन को समझा जा सके, मगर उस समय अमेरिका ने उसे देने से इनकार कर दिया था। कारगिल युद्ध के दो साल बाद, इसरो ने इंडियन रीजनल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (आईआरएनएसएस) विकसित किया। इसरो ने जुलाई 2015 में आईआरएनएसएस-1 ए लांच कर अमेरिका को जता दिया कि हमने भी सीमा की सुरक्षा के वास्ते वह तकनीक हासिल कर ली है। इसके साथ-साथ आम नागरिकों के इस्तेमाल के वास्ते भारत में स्टैंडर्ड पोजिशनिंग सर्विस (एसपीएस) की सुविधा प्रदान की गई है।
चीनी अंतरिक्ष बल का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। इसका गठन 2016 में 'पीएलए स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्सÓ के नाम से हुआ था। मगर ढाई साल की अवधि में चीनी अंतरिक्ष फोर्स के हैकरों ने अमेरिकियों की नींद हराम करके रख दी है। 9 अप्रैल 2019 को कोलराडो में आयोजित स्पेस सिंपोजियम में उस अवधि के कार्यकारी प्रतिरक्षा मंत्री प्रेट्रिक शानाहन ने सावधान किया था कि चीन स्पेस के वास्ते 'एनर्जी वेपनÓ विकसित कर रहा है। ऐसे हथियार ज़मीन पर स्थापित लेजऱ सिस्टम से संचालित होंगे। ये स्पेस वार के नये हथियार हैं, जिनसे मुक़ाबले के साथ-साथ उससे भी घातक हथियारों के निर्माण की होड़ आरंभ होने वाली है। शानाहन ने बाकायदा नाम लेकर कहा था कि इस 'एनर्जी वेपनÓ को मास्को और पेइचिंग मिलकर विकसित कर रहे हैं। कोलराडो की इस संगोष्ठी में यह स्पष्ट हो गया था कि अंतरिक्ष में उपग्रह संचार को अवरुद्ध करने, उसकी जासूसी करने और ज़रूरत पडऩे पर उसका विनाश कर देने की शुरुआत होने वाली है।
यों, चीन ने 11 जनवरी 2007 को अपने 865 किलो सैटेलाइट 'एफवाईवनसी-पोलर ऑरबिटÓ को ध्वस्त कर अमेरिका को संदेश दे दिया था कि हम अंतरिक्ष में कुछ भी कर सकते हैं। यह सिलसिला थमा नहीं। 2011 में भी चीन ने ऐसे ही परीक्षण किये। अंतरिक्ष में फैले उसके कचरे को लेकर अमेरिका ने काफी हो-हल्ला मचाया था। भारत ने भी 27 मार्च 2019 को एंटी सैटेलाइट वेपन का परीक्षण कर दुनिया के विकसित देशों को बता दिया कि हम अंतरिक्ष की ताक़त में अमेरिका, रूस और चीन से पीछे नहीं हैं। 27 मार्च 2019 को 'मिशन शक्तिÓ की सफलता भारत के 'बैलेस्टिक मिसाइल डिफेंस प्रोग्रामÓ का अहम हिस्सा रहा है।
वैसे, यह इस समय बहस का विषय नहीं होना चाहिए कि भारत स्पेस फोर्स के निर्माण में पूरे एक दशक से क्या करता रहा? अंतरिक्ष में जो कुछ हो रहा है, भारत उसे लेकर आंखें नहीं मूंदे हुए है। 10 जून, 2008 को तत्कालीन प्रतिरक्षा मंत्री ए.के. एटंनी ने मिल्ट्री स्पेस सेल के गठन की घोषणा की थी। हम थम से गये थे, पर रुके नहीं। 11 जून 2019 को प्रतिरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने डिफेंस स्पेस एजेंसी (डीएसए) का गठन और उसे सहयोग देने के वास्ते डिफेंस स्पेस रिसर्च एजेंसी (डीएसआरए) को हरी झंडी देकर देश का हौसला ही बढ़ाया है। भारत को आने वाले समय में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स सिस्टम, लेजऱ संचालित एनर्जी वेपन, जैमिंग टेक्नीक और साइबर वारफेयर को विकसित कर पूरी तैयारी रखनी होगी!
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