बाढ़ से तबाही का अंतहीन सिलसिला



पूर्वोत्तर राज्य असम एक बार फिर से सुर्खियों में है। हर साल की तरह बरसात के दिनों में चिरपरिचित बाढ़ के कारण। प्रदेश के 33 में से 29 जिले बाढ़ की चपेट में हैं। इन जिलों के 4,626 गांवों के 57.51 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। जबकि 1.51 लाख लोग स्थानीय प्रशासन के स्थापित 427 राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं।
बाढ़ से मरने वालों की संख्या 28 पार कर चुकी है। लाखों की संख्या में पालतू व वन्य जीव-जंतु भी प्रभावित हुए हैं। बाढ़ ने 1.73 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल को प्रभावित किया है। प्रसिद्ध काजीरंगा नेशनल पार्क का 90 प्रतिशत हिस्सा पानी में डूबकर तालाब में तबदील हो चुका है। असम से गुजरने वाले नेशनल हाईवे समेत छोटी-बड़ी सड़कें व पुल भी बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। कई जगह रेल लाइनें भी टूट गईं। हर बार की तरह इस बार भी ब्रह्मपुत्र और उसकी प्रमुख सहायक नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। राज्य में राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) की 15 टीमें राहत और बचाव कार्य में लगी हैं।
पूर्वोत्तर के इस सबसे बड़े प्रदेश में हर साल बहुत बड़ा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है। बड़ी आबादी का जीवन संकट में पड़ जाता है। बाढ़ से कटाव हो रहा है और हर साल असम की भूमि का बड़ा हिस्सा बह जा रहा है। असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की 28 जुलाई 2016 की 'फ्लड रिपोर्टÓ इसकी गवाह है कि लोगों को लगभग हर साल ब्रह्मपुत्र में आई बाढ़ के कहर से जूझना पड़ता है। उस रिपोर्ट के अनुसार तक असम में बाढ़ से 22 जिलों के 17.94 लाख लोग प्रभावित हुए थे और 2.13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसल बर्बाद हो गई। तब भी 2.29 लाख लोग राहत शिविरों में थे।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भी जानती हैं कि मूसलाधार बारिश हर साल ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों सुबानसिरी, जिया भरेली, धनश्री, पुथीमारी, पगलादीया और मानस के रास्ते बाढ़ लाती हैं। बराक नदी का भी यही हाल है। तिब्बत से निकली ब्रह्मपुत्र जल संसाधनों के हिसाब से दुनिया की छठे नंबर की नदी है। इसकी 41 सहायक नदियां हैं। ब्रह्मपुत्र तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश से होकर बंगाल की खाड़ी में समुद्र में मिलती है। इसका उद्गम तिब्बत के बुरांग काउंटी के हिमालयी आंग्सी ग्लेशियर से हुआ है। बरसात में जब भी तिब्बत, भूटान, अरुणाचल प्रदेश और ऊपरी असम में तेज बारिश होती है तो वे नदियां विकराल रूप धर लेती हैं। इस बार भी यही हुआ है।
वास्तव में इस चिरस्थाई समस्या का ठोस समाधान निकालने की कारगर कोशिश तक नहीं की गई क्योंकि बाढ़ वास्तव में सरकारी तंत्र के लिए 'सरकारी खजाने की लूट का उत्सवÓ जैसा हो गया है। हर बार बाढ़ आती है और केंद्र व राज्य सरकारें राहत राशि देती हैं। केंद्र व राज्य सरकार के मंत्री हवाई दौरा करते हैं और बाढ़ का पानी उतरते ही सभी बाढ़ के कहर को भूल जाते हैं। यह भी जानने लायक है कि केंद्र सरकार ने 1980 में ब्रह्मपुत्र बाढ़ नियंत्रण बोर्ड भी बनाया है। इसका उद्देश्य इस क्षेत्र में बाढ़ नियंत्रण का मास्टर प्लान तैयार कर उसे अमल में लाना भी है। लेकिन इस बोर्ड के पास 29 साल बाद भी उपलब्धियों के नाम पर बाढ़ का कहर ही है।
दुनिया भर की अधिकतर नदियों से बाढ़ से राहत मिल चुकी है, लेकिन भारत में आज भी असम, बिहार आदि राज्यों में नदियां हर साल कहर बरपा रही हैं। असम के लोग कहते हैं कि इस समस्या का एक ही समाधान है ब्रह्मपुत्र को बांध लिया जाए। वैसे तो ब्रह्मपुत्र का आकार इतना विशाल है कि उसे बांध पाना आसान नहीं है। खासतौर पर बारिश के पानी को बांधों में रोक पाना भी संभव नहीं है।
वैसे पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के समय तक के जल संसाधन मंत्री पृथ्वी मांझी के समय इस बारे में कोशिश की गई थी। उनके प्रयासों से जियो फेब्रिक ट्यूब तकनीक का इस्तेमाल करके लखीमपुर जिले के मतमाड़ा क्षेत्र में कुछ कि.मी. तटबंध बनाए गए। यह क्षेत्र आज बाढ़ से सुरक्षित है। मांझी की योजना थी कि पूरी ब्रह्मपुत्र के किनारे इसी तकनीक से तटबंध बनाए जाएं। इस पर 15-20 साल लग सकते हैं और खर्च लगभग एक लाख करोड़ रुपये आना है। कई जगह 15 कि.मी. चौड़े हो चुके ब्रह्मपुत्र के तटों पर तटबंध बनाने से उसकी चौड़ाई कम हो जाती। इससे नदी के जल का वेग बढ़ जाता और वह समुद्र की ओर तेजी से बढ़ती। इससे पानी अन्य क्षेत्रों में जाने से रुक जाता।
लेकिन राज्य में सरकार बदल जाने से यह योजना भी लालफीताशाही की शिकार हो गई। चर्चा होती रही है कि ब्रह्मपुत्र को देश की अन्य नदियों से जोड़ दिया जाए। लेकिन वहां के संगठनों के आक्रामक रुख को देखते हुए कोई भी इस योजना पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं होता। इन तमाम कारणों से असम के लोग हर साल बाढ़ की त्रासदी सहने के लिए अभिशप्त हैं।
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