बिना राहुल कांग्रेस

 


 


 


 


 



आम चुनाव में पार्टी की करारी हार के कुछ दिनों बाद पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश करने वाले राहुल गांधी ने आखिरकार सार्वजनिक रूप से इस पर अंतिम निर्णय की घोषणा कर दी है। साथ ही पार्टी की पराजय के लिये अपनी जिम्मेदारी को मानते हुए दल के अन्य नेताओं की जवाबदेही तय करने की भी बात कही। साथ ही यह भी कि जब तक हम सत्ता की कामना का त्याग नहीं करते, अपने विरोधियों को मात नहीं दे सकते। संभव है इस बयान के कुछ दार्शनिक निहितार्थ हों। मगर कहीं न कहीं वे इस बयान के जरिये पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने का ही प्रयास कर रहे थे। लेकिन एक बात तय है कि राहुल गांधी के इस्तीफे के अंतिम ऐलान के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं की वैसी सार्वजनिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी, जैसी वर्ष 1977 में इंदिरा गांधी की पराजय के बाद सामने आयी थी। या फिर सोनिया गांधी द्वारा 1999 में इस्तीफा देने के बाद सामने आई थी। तब कार्यकर्ताओं के दबाव के बाद सोनिया गांधी ने इस्तीफा वापस ले लिया था। इसके बावजूद तमाम सवाल बाकी हैं कि जैसा राहुल कह रहे हैं कि पार्टी गांधी परिवार पर निर्भरता से मुक्त रहे, तो क्या ऐसा संभव है? विगत में ऐसे अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। गांधी परिवार से बाहर राजनेताओं को पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन्हें संपूर्णता के साथ स्वीकार्य नहीं किया गया। संगठन के क्षत्रप आमने-सामने रहे और पार्टी में बिखराव भी नजर आया। बेहतर होता राहुल पार्टी अध्यक्ष रहते हुए नये अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया पूरी करा जाते। जहां तक पार्टी की गांधी परिवार पर निर्भरता खत्म करने की बात है तो प्रियंका गांधी अभी भी पार्टी में महासचिव पद पर कायम हैं और सोनिया गांधी यूपीए की चेयरपर्सन बनी हुई हैं। ऐसे में पार्टी में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से परिवार की भूमिका बनी रहेगी।
बदलाव की इसी पृष्ठभूमि में पार्टी पर निर्भर करेगा कि वह इस मौके को नये अवसर में कैसे बदलती है। क्या वह परिवार के मोह से इतर जनाधार वाले नेताओं को पार्टी नेतृत्व संभालने का अवसर देती है? जो पार्टी में सही मायनो में चयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सिरे चढ़ाकर अन्य राजनीतिक दलों पर भी ऐसा करने का दबाव बनाए। तमाम राजनीतिक दलों में चयन की परंपरा में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनदेखी ही की जाती रही है। सही मायनो में ऐसे कदमों से कांग्रेस संगठन ऊर्जावान व पारदर्शी बनेगा। ऐसे में पार्टी को उन नेताओं की जड़ें तलाशने की जरूरत है जो जनाधार के बिना ही दशकों से दिल्ली में बैठकर पार्टी में बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। साथ ही राज्यों में भी नेतृत्व की चयन प्रक्रिया को लोकतांत्रिक व पारदर्शी बनाने की जरूरत है ताकि राज्यों में भी भाजपा को चुनौती देने वाला संगठन बन सके। कहीं न कहीं राहुल गांधी ने भी सत्ता की कामना का त्याग करने की नसीहत देकर शायद इसी ओर इशारा भी किया है। नि:संदेह इन बदलावों से ही कांग्रेस में प्राण वायु का संचार हो सकता है जो लगातार दो आम चुनावों में करारी शिकस्त के बाद अपने जख्म सहला रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में राहुल गांधी का इस्तीफा पार्टी के लिये नुकसानदायक भी हो सकता है। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा हालात में कांग्रेस में वो दमखम नहीं है जो मोदी-शाह की रणनीतियों का मुकाबला कर सके। यहां सवाल यह भी है कि क्या आम चुनाव में हार की जवाबदेही सिर्फ राहुल गांधी की ही है? क्या केंद्र व राज्य के नेताओं को भी जवाबदेही के चलते इस्तीफे नहीं देने चाहिए? यदि ऐसा नहीं होता है तो पार्टी की कार्य संस्कृति में अपेक्षित बदलाव संभव ही नहीं है। पार्टी के लिये यह आत्ममंथन का समय है।
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