जनतंत्र में भीड़तंत्र के लिए जगह नहीं

 


 


 


 




आकाश विजयवर्गीय मध्य प्रदेश के एक युवा भाजपा नेता का नाम है। निर्वाचित विधायक हैं आकाश। उसकी एक पहचान यह भी है कि वह भाजपा के एक राष्ट्रीय स्तर के नेता का पुत्र है। हाल ही में इंदौर में एक सरकारी कर्मचारी को क्रिकेट के बल्ले से मारने के आरोप में आकाश को जेल में बंद किया गया था। अब आकाश को जमानत पर रिहा कर दिया गया है। अब वह व्यक्ति पुलिस से सुरक्षा की मांग कर रहा है, जिसे आकाश ने पीटा था।
आकाश का कहना है कि वह अधिकारी एक अनधिकृत और रहने के लिए खतरनाक हो चुके मकान से रहिवासियों को जबरदस्ती निकाल रहा था, इसलिए आकाश को उनकी मदद के लिए दनादन बल्ला चलाना पड़ा। अपनी गिरफ्तारी से पहले इस युवा विधायक ने बड़ी शान से कहा था कि उसकी नीति है–पहले आवेदन, फिर निवेदन, फिर दनादन। इस पराक्रम के लिए आरोपी विधायक की पार्टी ने उनकी जय-जयकार की है। विधायक का कहना है कि उसने जो कुछ किया, वह असहायों की मदद के लिए किया था और नगर निगम के अधिकारी अत्याचार कर रहे थे। हो सकता है विधायक की बात सही हो लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी विधायक को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार है?
दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों में ही कानून हाथ में लेने वाले अराजकता के कई उदाहरण सामने आए हैं। झारखंड के एक गांव में एक मुस्लिम युवक को चोरी के आरोप में भीड़ ने इतना पीटा कि अंतत: उसकी मृत्यु हो गई। उससे जबरदस्ती धार्मिक नारे भी लगवाए गए। सवाल उठता है कि कानून के शासन को भीड़तंत्र में बदलने के ऐसे उदाहरण बढ़ते क्यों जा रहे हैं। पर इससे कहीं अधिक गंभीर सवाल यह है कि एक सभ्य समाज में कानून के शासन में विश्वास करने वाले एक जनतांत्रिक देश में एक भी ऐसा उदाहरण क्यों सामने आए। भीड़ के पास विवेक नहीं होता, यह सच है लेकिन भीड़ कानून को अपने हाथ में ले ले तो शासन को क्या करना चाहिए। शासन को चाहिए कि भीड़ के नाम पर गुंडागर्दी करने वालों को शीघ्रातिशीघ्र सजा दिलवाए ताकि कानून अपने हाथों में लेने वालों को सबक मिल सके।
कुछ देर से ही सही पर प्रधानमंत्री ने संसद में झारखंड में मुस्लिम युवा पर हुए अत्याचार को संज्ञान में लेते हुए दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की बात कही है। उन्होंने यह भी कहा कि देश में कहीं भी इस तरह की अराजकता को स्वीकार नहीं किया जाएगा। लेकिन यह भाषा तो हम अरसे से सुनते आ रहे हैं। जब भी ऐसी कोई घटना घटती है तो शासक वर्ग चाहे वह किसी भी पार्टी का हो, इसी भाषा में बोलता है। फिर बात पुरानी पड़ जाती है। शासक मान लेते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है।
सवाल अराजक तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का है पर हमारे यहां तो कानून हाथ में लेने वालों का स्वागत-सत्कार किया जाता है। यह कैसे भुलाया जा सकता है कि भाजपा की पिछली सरकार के एक मंत्री ने गौहत्या के आरोप में एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार देने वाले 8 अपराधियों के जमानत पर छूटने पर मालाएं पहनाकर उनका अभिनंदन किया था। और यह भी हम कैसे भूलेंगे कि सरकारी अफसर की पिटाई करने वाले विधायक के जमानत पर छूटने पर उनकी पार्टी के लोगों ने हवा में गोलियां चलाकर खुशियां मनाई। इस तरह के उदाहरण कानून के शासन में विश्वास को कम करते हैं। ऐसे अपराधियों को जब कड़ी धमकी देकर फिर ऐसा ही करने के लिए छोड़ दिया जाता है तो यह सवाल तो उठता ही है कि कहीं हमारा प्रजातंत्र जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली व्यवस्था में ही तो परिणत नहीं होता जा रहा है।
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बंगाल, झारखंड, केरल तक में भीड़तंत्र की अराजकता के उदाहरण सामने आ रहे हैं। कहीं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ही धर्म के नाम पर हिंसा और कहीं दबंगई वाला 'मार दनादनÓ का दर्शन हमारी समूची व्यवस्था को चुनौती दे रहा है। एक अरसा हो गया इस तरह की घटनाओं को घटते। भीड़ का शासन हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था को अंगूठा दिखा रहा है। जनतांत्रिक आस्थाएं दांव पर हैं।
पहली बार जब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनी थी तो नए प्रधानमंत्री ने संसद की देहरी पर माथा टेककर कानून के शासन में विश्वास प्रकट किया था। इस बार प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों के समक्ष दिए गए पहले भाषण के बाद देश के संविधान के आगे माथा टेककर देश की जनता को विश्वास दिलाया था कि किसी को भी संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं दिया जाएगा। उन्होंने सबका साथ, सबका विकास के साथ-साथ इस बार सबका विश्वास प्राप्त करने की बात भी कही थी। सबका विश्वास तभी प्राप्त किया जा सकता है जब देश के हर नागरिक को यह आश्वासन मिले कि उसके साथ न्याय होगा। न्याय का मतलब है एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें अपराध के लिए दंड का प्रावधान नहीं हो, अपराधी को दंड मिले भी। और यह दंड संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत हो।
हमारा जनतंत्र, समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के चार खंभों पर टिका है। यहां हर नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या भाषा वाला हो, समान अधिकार प्राप्त हैं। यहां सबके लिए न्याय की व्यवस्था है। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में भीड़तंत्र के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि अराजक तत्वों को कानून अपने हाथ में लेने का न अधिकार मिले, न अवसर। किसी को भी पीट-पीटकर मार देना जघन्य अपराध ही नहीं, अमानवीयता भी है। अपराधी को कड़ी सजा दिए जाने की बात ही पर्याप्त नहीं होती, कड़ी सजा मिलनी भी चाहिए। तभी अपराध करने वाले को कानून का डर लगेगा। यह विडंबना ही है कि कानून की बात तो होती है पर अपराधी कानून से डरता नहीं दिखता। ऐसा कोई डर होता तो शायद इंदौर का आरोपी विधायक जमानत पर छूटने के बाद यह न कहता कि 'उम्मीद है मुझे फिर से बल्ला घुमाने का अवसर नहीं मिलेगा।Ó
जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को इतना तो समझना ही चाहिए कि वे कानून का उल्लंघन करने वालों पर नजर रखने के लिए हैं, कानून का बल्ला घुमाने के लिए नहीं। कानून का उल्लंघन करने वालों को पकडऩे का काम पुलिस का है और उन्हें सजा देने का काम अदालत का है। किसी भी नागरिक को चाहे वह किसी भी पद पर हो, कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। क्रिकेट का बल्ला क्रिकेट खेलने के लिए होता है, किसी की टांगें तोडऩे के लिए नहीं। वैसे आकाश ने यह भी कहा था कि अब वह गांधीजी द्वारा बताए रास्ते पर चलेगा। गांधी की राह में किसी भी प्रकार की हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। गांधी का नाम लेकर कुछ भी करने की आजादी अपने आप में एक अपराध है।
००