कांग्रेस के कायाकल्प की चुनौती स्वीकारें राहुल

 


 


 


 




अपनी असली मंशा तो राहुल गांधी खुद ही जानते होंगे, लेकिन उनका इस्तीफा-हठ फिलहाल कांग्रेस का बंटाधार ही करता नजर आ रहा है। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों में पस्त कांग्रेस की 25 मई की समीक्षा बैठक में ही इस्तीफे की पेशकश करने वाले राहुल गांधी ने पार्टी को गांधी परिवार से बाहर से नया अध्यक्ष चुनने की सलाह दी थी। जैसा कि अक्सर राजनीतिक दलों में होता है (कांग्रेस की तो यह खास संस्कृति ही बन गयी है), राहुल को मनाने के लिए कांग्रेसियों में होड़-सी लग गयी। इसी मान-मनौव्वल की प्रक्रिया में राहुल ने इस बात पर आश्चर्य मिश्रित नाराजगी भी जतायी कि किसी भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने चुनावी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देने की जरूरत नहीं समझी। उनकी इस टिप्पणी का असर भी हुआ, पर शायद उन पर नहीं, जिन पर होने की अपेक्षा थी। नतीजतन, संभवत: पहली बार, किसी राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष ने ट्विटर पर कार्यकर्ताओं के नाम चार पृष्ठ का पत्र जारी करते हुए अपने इस्तीफे की सार्वजनिक घोषणा की। ध्यान रहे कि इस घोषणा के वक्त भी राहुल यह याद दिलाना नहीं भूले कि हार के जिम्मेदार अभी भी जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं और पार्टी को सख्त रुख अख्तियार करना चाहिए। उनकी इस घोषणा और सख्त टिप्पणी का भी कुछ असर दिखा, पर वहां नहीं, जहां अपेक्षित है।
मसलन, महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चव्हाण ने शर्मनाक चुनावी प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया। कुछ अन्य प्रदेश अध्यक्षों समेत पार्टी और उसके अनुषांगिक संगठनों के पदाधिकारियों ने भी इस्तीफे दिये हैं, पर क्या नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले भाई की बहादुरी का गुणगान करने वाली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का अभी तक इस्तीफा न देना चौंकाता नहीं? प्रियंका को इस उम्मीद के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया था कि दादी की झलक के साथ वह कोई चुनावी करिश्मा कर पायेंगी, पर जो हुआ, वह सभी के सामने है। खुद राहुल गांधी नेहरू परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से हार गये। जाहिर है, इंदिरा गांधी के हाव-भाव और शैली से तुलना के बावजूद प्रियंका का ट्रंप कार्ड नहीं चल पाया। बेशक कड़ी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा वाले चुनाव में पारिवारिक पृष्ठभूमि और हाव-भाव की समानता के आधार पर ट्रंप कार्ड चुनना कांग्रेस के राजनीतिक वैचारिक दिवालियेपन का भी प्रमाण है। प्रियंका के साथ ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया, तब भी राजनीति के जानकारों को आश्चर्य हुआ था। शून्य रहे चुनाव परिणाम ने उस आश्चर्य को सही भी ठहरा दिया, लेकिन खुद मध्य प्रदेश में अपनी परंपरागत सीट एक नौसिखिया से हार जाने वाले सिंधिया को भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी का अहसास राहुल की बार–बार सख्त टिप्पणियों के बाद ही हुआ।
बेशक सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों के दौरान कांग्रेस की अपरिपक्व और अराजनीतिक रणनीति एवं अभियान के लिए बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से बरी नहीं हो सकते, लेकिन क्या पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? चुनावी पराजय के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे देने की राजनीतिक परंपरा बहुत पुरानी है। उतनी ही पुरानी परंपरा उन इस्तीफों को अस्वीकार कर देने की भी है। इसके बावजूद खुद को कांग्रेसी दिग्गज कहलवाना पसंद करने वाले नेताओं ने भी चुनावी पराजय की नैतिक जिम्मेदारी से मुंह चुराना पसंद किया। निश्चय ही समीक्षा बैठक में प्रियंका गांधी द्वारा वरिष्ठ नेताओं पर दोषारोपण के लिए इस्तेमाल भाषा को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन खासकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जैसी चुनावी दुर्गति हुई, उसकी जिम्मेदारी-जवाबदेही से वहां के मुख्यमंत्री क्रमश: अशोक गहलोत और कमलनाथ बरी नहीं हो सकते। आखिर चंद महीने पहले ही हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता भाजपा से छीनी थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि राज्य में अपने शासन का लाभ मिलने के बजाय चुनाव परिणाम उलटे ही आये? राजस्थान में भाजपा सभी 25 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि मध्य प्रदेश की 39 में से कांग्रेस के हिस्से महज एक सीट आयी, जहां से मुख्यमंत्री कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ चुनाव लड़ रहे थे।
भाजपा को मिले उम्मीद से भी बेहतर जनादेश और कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव की एक सरल व्याख्या यह हो सकती है (जो राज्यों के कांग्रेसी क्षत्रप कर भी रहे हैं) कि यह मोदी लहर का परिणाम था। बेशक सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में मोदी लहर थी। यह लहर इतनी प्रभावी थी कि प्रचार के दौरान मोदी ने तमाम चुनाव क्षेत्रों में तो प्रत्याशियों का नाम बताना भी जरूरी नहीं समझा। समाचार माध्यमों पर प्रचार में भी वह कहते सुनायी दिये कि कमल के निशान को दिया गया हर वोट सीधा मोदी के खाते में जायेगा। निश्चय ही यह चुनाव राजनीतिक दल और उसके नीति-कार्यक्रमों के बजाय नेतृत्व के व्यक्तित्व पर लड़ा गया, जिसमें मोदी अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़े, लेकिन कैसे भुलाया जा सकता है कि इस मोदी लहर में भी उड़ीसा में नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में के़. चंद्रशेखर राव की टीआरएस और तमिलनाडु में द्रमुक अजेय साबित हुए? खुद कांग्रेस शासित पंजाब में भी मोदी लहर कमाल नहीं कर सकी। इसका अर्थ यही है कि लहर के बावजूद मतदाताओं ने विवेक सम्मत मतदान किया। चुनाव परिणामों से साफ है कि मतदाताओं ने मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए मतदान किया, लेकिन राज्यों में जहां कहीं भी विश्वसनीय विकल्प और नेतृत्व उपलब्ध था, उसे भी मतदाताओं ने पूरा मान दिया।
इसमें दो राय नहीं कि लगातार दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के शर्मनाक प्रदर्शन ने पार्टी की कमजोरियां बेनकाब कर दी हैं, जिनका उपचार सर्जरी ही है। जाहिर है, इसकी जिम्मेदारी नेतृत्व की ही बनती है, लेकिन विडंबना देखिए कि खुद नेतृत्व उस चुनौती को स्वीकार करने के बजाय रणछोड़ नजर आ रहा है। वंशवाद को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता, लेकिन कांग्रेस इस सच से भी मुंह नहीं चुरा सकती कि खासकर सत्ता राजनीति में उसकी सफलता में नेहरू परिवार के नेतृत्व की निर्णायक भूमिका रही है। राजनीति में वंशवाद को लोकतंत्र का अपमान मानने वाले प्रेक्षक भी मानते हैं कि नेहरू परिवार का नेतृत्व कांग्रेस की एकजुटता में सबसे कारगर सीमेंट रहा है। बेशक नेहरू परिवार का सदस्य होने के नाते ही राहुल गांधी को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी—कांग्रेस का सबसे युवा अध्यक्ष बनने का अवसर मिला। यह भी सच है कि उनके अध्यक्ष काल में कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक दुर्गति को प्राप्त हो रही है, लेकिन शायद पलायन इसका एकमात्र समाधान नहीं है।
पहले महासचिव और फिर उपाध्यक्ष के रूप में राहुल ने कांग्रेस में संगठनात्मक चुनाव के जरिये (प्रतीकात्मक रूप से ही सही) आंतरिक लोकतंत्र बहाल करने की कोशिश की। जाहिर है, वह कोशिश नेतृत्व के परंपरागत दरबारियों को रास नहीं आयी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। राहुल को अपने पिता राजीव गांधी का मुंबई कांग्रेस अधिवेशन का वह चर्चित भाषण पढऩा और समझना चाहिए, जिसमें उन्होंने सत्ता के दलालों पर निशाना साधा था। दरअसल, भाजपा के राष्ट्रीय उभार के साथ ही बदलती राजनीतिक शैली में कांग्रेस तेजी से अप्रासंगिक होती गयी है। जब तक कांग्रेस अपनी प्रासंगिकता पुनर्परिभाषित नहीं करती, उसका राष्ट्रीय राजनीति में कोई भविष्य नहीं। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते राहुल यह काम ज्यादा आसानी से कर सकते हैं, जिसका पहला चरण होगा दिग्गजों को ससम्मान विदा कर कांग्रेस को युवा रूप देना। इसलिए राहुल को जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुंह चुरा कर कांग्रेस के बिखराव का मूकदर्शक बने रहने के बजाय निहित स्वार्थी तत्वों से मुक्त करा कर पार्टी के कायाकल्प की चुनौती स्वीकारनी चाहिए।
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