खुदकुशी की जड़ें

 


 


 


 



कभी हरित क्रांति के महानायकों में शुमार व खेती में समृद्धि का प्रतीक रहे पंजाब का किसान क्यों मौत को गले लगाने को बेताब है, ये चिंता पूरे देश की है। इस चिंता को अदालतें समय-समय पर गंभीरता से लेती रही हैं। साथ ही पंजाब सरकार को गाहे-बगाहे लताड़ भी लगाती रही हैं कि आत्महत्या करने वाले किसानों को दिया जाने वाला मुआवजा समस्या का उपचार नहीं है। बल्कि यहां तक चिंता जताती रही है कि बढ़ा हुआ मुआवजा कहीं किसानों को अपने परिवार की मदद करने के मकसद से आत्महत्याओं को बढ़ावा न दे दे। जाहिरा तौर पर सोना उगलने वाले पंजाब के खेतों में मौत का सन्नाटा हम सबकी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। वर्ष 2015 में पंजाब सरकार की ओर से राज्य के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा घर-घर कराये गये सर्वे में बताया गया था कि वर्ष 2000 से लेकर 2015 के बीच पंजाब के 16,606 किसानों व खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। इन आत्महत्याओं में 87?फीसदी वे किसान थे, जिन्होंने खेती से जुड़े सामान के लिये ऋण लिये थे। उसे चुका न पाने की वजह से किसानों ने आत्महत्याएं? कर लीं। इस भयावह तस्वीर का एक पक्ष यह भी है कि खुदकुशी करने वाले किसानों में 76 फीसदी वे किसान थे, जिनकी जोत पांच एकड़ से कम थी। कालांतर वर्ष 2015 में पंजाब सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसानों के लिये नयी मुआवजा एवं राहत नीति की घोषणा की, जिसके अंतर्गत आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार को राहत के रूप में तीन लाख रुपये देने का प्रावधान है। जिस पर कोर्ट ने चिंता जतायी थी कि इससे किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ेगी, क्योंकि किसान इसके जरिये परिवार पर चढ़े कर्ज के बोझ को कम करने के प्रयास में घातक कदम उठा सकते हैं। कालांतर कैप्टन सरकार ने मुआवजा राशि को बढ़ा दिया था।
किसानों की आत्महत्या की बाबत दर्ज एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा किये गये अध्ययन की रिपोर्ट को दो सप्ताह में अदालत के रिकॉर्ड हेतु उपलब्ध कराने के निर्देश?दिये हैं ताकि किसानों व खेतिहर श्रमिकों द्वारा आत्महत्या करने के मुद्दे पर गहराई से विवेचन किया जा सके। मुख्य न्यायाधीश कृष्ण मुरारी व न्यायमूर्ति अरुण पल्ली की खंडपीठ का यह निर्देश ऐसे समय पर आया है जबकि कहा जा रहा है कि पिछले दो वर्षों में पंजाब के नौ सौ से अधिक किसानों व खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की है। दरअसल, यह सर्वेक्षण पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना, पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला तथा गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर द्वारा किया गया था। खंडपीठ ने निर्देश दिया कि विश्वविद्यालयों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट की एक प्रति दो सप्ताह के भीतर रिट याचिकाओं के रिकॉर्ड में शामिल की जाये। इस मामले में पीठ सितंबर के पहले सप्ताह में सुनवाई करेगी। खंडपीठ पिछली सुनवाई में राज्य सरकार को किसानों की आत्महत्याओं के बाबत उपयुक्त नीति बनाने का निर्देश दे चुकी है। तब राज्य सरकार ने आंध्र प्रदेश की तर्ज पर नीति बनाने का आश्वासन दिया था, मगर इस बाबत अदालत को नयी नीति का प्रारूप उपलब्ध नहीं कराया गया। समय-समय पर सरकार द्वारा बनायी गई कमेटियों ने किसानों की समस्या के समाधान के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने व ऋण छूट जैसे विकल्प अपनाने की सिफारिश की मगर जमीनी स्तर पर प्रभावी कार्रवाई होती नजर नहीं आयी। दरअसल, किसानी संकट की हकीकत यह भी है कि खेती से जुड़ी व्यापारिक नीतियां किसानों के लिये लाभदायक नहीं हैं। जिस अनुपात में खेती की लागत बढ़ी है, उस अनुपात में किसान की आमदनी नहीं बढ़ी। यही आय-व्यय का अंतर कर्ज लेने को बाध्य करता है, जिसकी परिणति कर्ज न चुका पाने पर आत्महत्या के रूप में सामने आती है। इसकी हकीकत समझने और कारगर समाधान तलाशने की ईमानदार कोशिश सत्ताधीशों की तरफ से नहीं हो पायी है।
००