नड्डा की चुनौतियां

 


 


 


 



अवधेश कुमार
भाजपा के इतिहास में पहले कोई कार्यकारी अध्यक्ष नहीं हुआ। इस नाते जगत प्रकाश नड्डा की नियुक्ति पार्टी के लिए नई परिघटना है। 
उनके कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने का अर्थ भविष्य का पूर्णकालिक अध्यक्ष तैयार करना। भाजपा में एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत चलता रहा है। 2014 में नरेन्द्र मोदी सरकार के गठन के समय राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष थे। गृह मंत्री बनने के बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।  अमित शाह अध्यक्ष बने किंतु अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद ऐसा नहीं हुआ। पार्टी पदाधिकारियों की बैठक के बाद बताया गया कि सभी ने उन्हें अध्यक्ष बने रहने का आग्रह किया है। कम से कम दिसम्बर तक अमित शाह गृह मंत्री रहने के साथ पार्टी अध्यक्ष भी बने रहेंगे। कारण माना जा रहा है कि इस वर्ष भाजपा शासित तीन राज्यों झारखंड, महाराष्ट्र एवं हरियाणा विधानसभाओं के चुनाव हैं। पिछले पांच वष्रो में अमित शाह ने संगठन का जिस ढंग से संचालन किया है उसमें अचानक उनके पद छोडऩे से एक खाई पैदा हो जाएगी जिसका असर चुनाव प्रबंधन व रणनीति पर पड़ सकता है।
नड्डा 1991 में भाजपा युवा मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसके बाद पार्टी महासचिव से लेकर सर्वोच्च निर्णयकारी इकाई संसदीय बोर्ड के सचिव तक पहुंचे। कई राज्यों के प्रभारी भी रहे। सरकार में भी प्रदेश से लेकर केंद्रीय मंत्री का दायित्व संभाल चुके हैं। यानी सरकार एवं संगठन, दोनों का पर्याप्त अनुभव उनको है।   विनम्र व्यवहार एवं मृदु वाणी के कारण केंद्रीय नेतृत्व में इनका घोर विरोधी नहीं मिलेगा। सामान्य तौर पर उनके सामने संगठन को लेकर कोई बड़ी चुनौती नहीं दिखती। मोदी एवं अमित शाह की जोड़ी ने पार्टी को वहां लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से इस समय के राजनीतिक परिदृश्य में पीछे जाने का खतरा दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
मोदी की लोकप्रियता चरम पर है और अमित शाह को गृह मंत्रालय देने की पीछे उनकी दूरगामी रणनीति है। जिन तीन राज्यों में चुनाव हैं, उनमें लोक सभा में भाजपा ने श्रेष्ठ प्रदशर्न किया है। यहां पराजय के आघात से विपक्ष को उबरने में समय मिलेगा। इसलिए नड्डा के सामने चुनाव में जो सामान्य चुनौतियां होती है, वही हैं। घटता जनाधार संभालने, सरकारों की अलोकप्रियता जैसी समस्याएं उनके सामने नहीं हैं। अमित शाह ने केंद्र से लेकर ज्यादातर राज्यों में पार्टी को सतत गतिशील ढांचे में ला दिया है। तो नड्डा को पार्टी मशीनरी सक्रिय करने के लिए भी नये सिरे से योजना बनाने और काम करने की आवश्यकता नहीं है। 
दुनिया में सबसे ज्यादा सदस्य संख्या भाजपा के पास है। अमित शाह इसमें 20 प्रतिशत बढ़ोतरी चाहते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि नड्डा के लिए चुनौतियां नहीं हैं। जब पार्टी राजनीतिक एवं चुनावी, दोनों मामलों में उच्च शिखर पर पहुंच जाती है तो उसे बनाए रखना तथा उससे ऊपर ले जाना बड़ी चुनौती होती है। सरकार और संगठन में समन्वय बनाए रखकर आपादमस्तक पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को संतुष्ट तथा सक्रिय रखना भी आसान नहीं होता। नेताओं-कार्यकर्ताओं और समर्थकों की सरकार से बहुविध आकांक्षाएं होती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में सबसे बड़ी समस्या यही थी, जिस कारण कार्यकर्ता और समर्थक ही नहीं, नेता तक असंतुष्ट और नाराज हो गए थे। शाह ने मोदी के सहयोग से इस दिशा में एक हद तक सफलता पाई थी। भाजपा अन्य पार्टयिों की तरह सामान्य पार्टी नहीं है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का एक अंग है। इसलिए यहां परिवार के सभी संगठनों के साथ समन्वय बनाकर चलना होता है। अमित शाह इस मामले में सफल कहे जा सकते हैं कि उनके कार्यकाल में परिवार का कोई संगठन सरकार के विरोध में सड़कों पर नहीं उतरा। यही स्थिति आगे भी रहे, इसकी गारंटी नहीं। 2018 के विजयादशमी संबोधन में सरसंघचालक मोहन भागवत ने राममंदिर निर्माण प्रक्रिया न शुरू होने पर निराशा प्रकट करते हुए बयान दिया था कि लोग पूछते हैं कि अब तो अपनी सरकार है, फिर मंदिर क्यों नहीं बन रहा। 
चाहे कानून बनाना पड़े या कुछ यह होना चाहिए। उसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने आंदोलन आरंभ कर दिया था। जब विपक्ष ने आरोप लगाया कि चुनाव आते ही इनको मंदिर याद आता है तो आंदोलन स्थगित किया गया। अब पुन: अयोध्या में विहिप और साधु-संतों की बैठक हो चुकी है। यह मुद्दा गरमाएगा और भाजपा को अपना स्टैंड लेना पड़ेगा। सरकार सक्रिय न हुई तो तनाव होगा। इसी तरह संघ परिवार में यह भी धारणा है कि कश्मीर से संबंधित धारा 35 ए सरकार तुरंत हटाने वाली है तथा धारा 370 के लिए भी कदम उठाएगी। गोहत्या कानून बनाने से लेकर ऐसे कई मुद्दे हैं। भाजपा के अंदर से भी यह मांग उठेगी। पिछली सरकार में संसदीय दल की बैठक में नरेन्द्र मोदी के सामने कई सांसदों ने मंदिर का प्रश्न उठा दिया था। अमित शाह ने काफी समय बाद पार्टी को एक हद तक 1990 के दशक वाला आक्रामक तेवर दिया है। सरकार के मुखिया के नाते मोदी भाजपा के परंपरागत मुद्दों पर भले न बोलें, लेकिन अमित शाह ने सारे मुद्दे उठाए और उससे कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों का उत्साह बना रहा। 
नड्डा के भाषण में अभी तक अमित शाह वाला तेवर नहीं दिखा है। अमित शाह आम सभाओं में मंदिर से लेकर, घुसपैठियों को बाहर निकालने, नागरिकता रजिस्टर, कश्मीर के आतंकवाद, पाकिस्तान, गोहत्या, धारा 35ए, 370 पर आक्रामक होकर बोलते रहे हैं। उस तेवर को कायम रखना तथा उसी आत्मविश्वास से बोलना नड्डा के लिए साधारण चुनौती नहीं है। अमित शाह ढाई दशक से ज्यादा समय बाद जय श्रीराम के नारे को फिर भाजपा के अंदर लाए हैं। स्वयं मंचों से दोनों हाथ उठाकर जय श्रीराम बोलते और सामने लोगों से दुहरवाते रहे हैं। पश्चिम बंगाल में यह भाजपा का प्रमुख नारा बना हुआ है। 2021 में वहां के चुनाव को भाजपा करो और मरो मानकर लडऩे जा रही है। शबरीमाला पर केरल में अमित शाह के नेतृत्व में आंदोलन करके अपने हिंदुत्व को नई धार दी गई। संघ और भाजपा की नजर केरल पर है और उसे और आगे ले जाना है। मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद त्रिशूर मंदिर में पूजा-अर्चना करने गए और आम सभा को संबोधित किया। प. बंगाल और केरल भाजपा के फोकस में हैं। तो भाजपा का यह तेवर बनाए रखना होगा। नड्डा की सफलता केवल संगठन के अंदर के प्रबंधन और सबके साथ विनम्र व्यवहार से नहीं सार्वजनिक रूप से पार्टी की इस रणनीति और उसके अनुरूप तेवर को कायम रहने पर निर्भर करेगी। यह साधारण काम नहीं है।

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