उनके कहने, न कहने के बीच

 


 




ऐसे लोग मुझे पसंद हैं जो हमेशा ही कुछ न कुछ कहते रहते हैं। उन्हें इस बात की कतई फिक्र नहीं रहती कि कोई उनके बारे में क्या बोलेगा। उन्हें तो बस कहने से मतलब। दुनिया का शायद ही ऐसा कोई विषय या मुद्दा बचता हो, जिस पर वो कुछ न कहते हों। कहते तो हैं ही, साथ में राय भी दे देते हैं कि ये ऐसे होना चाहिए था। इसे वैसे कर लेते तो ठीक रहता।
कुछ भी कहने वालों की हम जुबान नहीं पकड़ सकते। हिंदुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में तो बिल्कुल भी नहीं। यहां तो लोग कभी-कभी बे-बात ही कुछ न कहने पर भी लडऩे-मरने को तैयार हो जाते हैं। इसलिए भलाई इसी में है कि कुछ न कुछ, जब मौका बने, कहते रहें।
हालांकि सभी ग्रंथ और महापुरुष 'कम बोलने और 'तोल-मोल के बोलनेÓ के प्रसंगों व सीखों से भरे पड़े हैं। लेकिन कौन ध्यान देता है? कुछ आत्माएं तो कुछ भी कहने के मामले में ऐसी होती हैं, मानो धरती पर उन्हें भेजा ही कुछ भी कहने के लिए हो।
ज्यादा दूर क्यों जाऊं, मेरे ही घर में जो भी कहना होता है, बीवी ही कहती है, मैं सिर्फ सुनता हूं। सुनने की ऐसी आदत पड़ चुकी है कि अब तो अगर कुछ मिनट वो कुछ न कहे तो बेचैनी-सी होने लगती है कि आखिर उसने कुछ कहा क्यों नहीं!
हमें चाहिए कि हम कुछ कहने वालों के कहे का बोझ कतई न लें। उन्हें कहने दें। अपने मन की भड़ास निकालने दें। वे कुछ न कहेंगे तो कान कुछ न सुनने के एवज में बेकार हो जाएंगे। कहने-सुनने का यह एक ऐसा चक्र है जो निरंतर चलता रहना चाहिए।
गीतकार ने बहुत सोचकर यह गीत लिखा होगा कि 'कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहनाज्।Ó बिल्कुल कहने वाले अगर न होंगे तो न नेता ठीक से काम करेंगे, न अर्थव्यवस्था ठीक से चलेगी, न नाते-रिश्ते ठीक से निभ पाएंगे, न शादी-ब्याह ठीक से चल सकेंगे। तो जो कह रहा है, जैसा कह रहा है, उसे कह लेने दीजिए। कुछ नहीं कहेगा तो बीमार पड़ जाएगा। कहने वालों का बीमार पडऩा देशहित में उचित नहीं।