आदर्श नियोक्ता की कसौटी पर विफलता



हाल ही में हरियाणा में एक होमगार्ड से रिश्वत लेने के जुर्म में एक अधिकारी को गिरफ्तार किया गया। इसमें क्या खास बात है  रोज़ ही कोई न कोई रिश्वत लेने के अपराध में गिरफ्तार होता है। इस गिरफ्तारी को खास बनाता है रिश्वत मांगने का कारण। होमगार्ड्स को 89 दिन ड्यूटी करने के बाद हटा दिया जाता है और कुछ दिनों के बाद दोबारा ड्यूटी पर लिया जाता है। इस प्रकरण में रिश्वत दोबारा ड्यूटी पर रखने के एवज़ में ली जा रही थी। आज तो सालों साल लोग ठेके पर या कच्ची नौकरी करते हैं, फिर यह 89 दिन बाद नौकरी से हटा कर दोबारा नौकरी पर रखने का क्या माजरा है 
इस घटना ने उस दौर की याद दिला दी जब हम नौकरी की तलाश में थे। तब नियमित काम के लिए कच्चा कर्मचारी नहीं रखा जा सकता था। अगर मौसमी काम है तो भले ही सरकार कच्चा कर्मचारी रख सकती थी, पर अगर काम नियमित प्रकृति का है तो पक्का कर्मचारी ही रखना होता था। अगर किसी कच्चे कर्मचारी से 90 दिन काम ले लिया तो उसे पक्का कर्मचारी मान लिया जाता था। ठेके पर या आउटसोर्सिंग पर कर्मचारी लगाने को आम बना देने के पहले के दौर में सरकारों ने इस कानूनी जिम्मेदारी से बचने के लिए यह रास्ता निकाला था कि कच्चे कर्मचारी को 89 दिन बाद निकाल कर फिर रख लेते थे।
किन कानूनी दांवपेचों से निकल कर बरसों तक कर्मचारियों को ठेके पर रखने को कानूनी जामा पहनाया गया। पता नहीं उस कानून का क्या बना कि 'समान कार्य के लिए समान वेतनÓ एक समय पर वास्तव में यह कानून था, भले ही आज ठेके पर या आउटसोर्सिंग एजेंसी के माध्यम से लगे कर्मचारियों को जो नियमित कर्मचारियों की तुलना में बहुत कम वेतन पाते हैं, पर यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कोई तो सरकारी विभाग है जो अब भी इस पुराने उसूलों को निभा रहा है।
पर इस मंजऱ पर विचार तो करना ही चाहिए कि चौराहे पर यातायात को नियंत्रण करने वाले दो खाकी वर्दीधारियों की सेवा शर्तों में इतना फर्क क्यों है  क्यों महकमा (होमगार्ड) तो पक्का है, अधिकारी भी पक्की नौकरी वाले हैं (होमगार्ड में उच्च अधिकारी पुलिस महकमे से डेपुटशन पर आते हैं) पर कर्मचारी कच्चे हैं  क्या इसके पक्ष में कोई विवेकसम्मत तर्क दिया जा सकता है सिवाय इसके कि यह खर्चा कम करने की सरकारी नीति है 
देश के संविधान के अनुसार हर नागरिक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, क्या किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे जायज़ ठहराया जा सकता है कि 89 दिन तक किसी को नौकरी पर रख कर एक दिन के लिए हटा कर दोबारा फिर नौकरी पर रख लिया जाये  जब सरकार ही कानून की मूल भावना का सम्मान न करके, केवल शब्दों को मानेगी तो उस देश में कानून का राज कैसे हो सकता है  क्या इस परिस्थिति में किसी अधिकारी-कर्मचारी से वास्तव में यह आशा की जा सकती है कि वह कानून के शब्द और भावना (लेटर एंड स्पिरिट) के अनुसार काम करे, न कि लालफ़ीताशाही के अनुसार 
स्वतंत्रता के बाद आशा यह थी कि सरकार अपने व्यवहार से एक आदर्श नियोक्ता के मापदंड स्थापित करेगी। आशा थी कि इस का प्रभाव यह होगा कि निजी क्षेत्र की सेवा शर्तों में सुधार होगा। पर सरकारों ने निजी क्षेत्र की सेवा शर्तों में सुधार पर खास ध्यान नहीं दिया। इसके चलते निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा शर्तों के बीच का अंतर एक समय तक बढ़ता गया।
होना तो यह चाहिए था कि निजी क्षेत्र की सेवा शर्तों में सुधार होता पर जब यह नहीं हुआ तो उल्टा हो गया। सरकारें ही निजी क्षेत्र की राह पर चल पड़ी है। निजी क्षेत्र से मुक़ाबला करने के लिए एक ओर उच्च स्तर पर वेतन एवं भत्तों को बढ़ाया गया ताकि आईएएस जैसी सेवाएं 'आवश्यक प्रतिभाÓ को आकर्षित कर सकें, और निजी क्षेत्र की तर्ज पर ही निम्न स्तर पर कम से कम वेतन देकर काम चलाने की नीति अपनाई गई। लगे हुए कर्मचारियों के वेतन को घटाना मुश्किल था तो ठेका प्रथा का सहारा लेकर नए लगाए जाने वाले कर्मचारियों पर यह लागू कर दिया गया।
सरकारें बदलती हैं, सरकारी नीतियां भी बदलती हैं, पर जीवन के आधार भूत सत्य नहीं बदलते; भले ही उनका ऊपरी स्वरूप बदल जाए। नियमित काम के लिए नियमित भर्ती ही होनी चाहिए, एक जैसे काम के लिए एक जैसा वेतन ही दिया जाना चाहिए। भले ही आज ऐसा होना असंभव लगे, पर 89 दिन के नियम में आया बदलाव यह साबित करता है कि मानव समाज परिवर्तनशील है। अपने देश समाज की व्यवस्था हमें ही बनानी है।
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