आरटीआई : नख-दंत विहीन हुआ



किसी देश में लोकतंत्र की सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाता है, और किया भी जाना चाहिए कि वहां की सरकार ने किस हद तक अपने नागरिकों का सशक्तिकरण किया है। 
इस लिहाज से 2006 में बना सूचना का अधिकार कानून लोकतंत्र की गरिमा और प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला था। शासन-प्रशासन में पारदर्शिता कायम करने, भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने और अधिकारियों को जिम्मेदार बनाने के उद्देश्य से बनाया गया यह कानून हमारे हाथों में एक मजबूत और प्रभावी उपकरण था। लेकिन दुर्भाग्य कि अब उसमें संशोधन के जरिए मोदी सरकार हमारे उस सशक्त औजार को छीनने में जुट गई है। 
मालूम हो कि सूचना का अधिकार हमें यों ही अचानक नहीं मिल गया था। न सरकार की भल मनसाहत या उदारता का परिणाम था। सच यह है कि इस कानून के लिए देश भर में आंदोलन किए गए थे। गहन जन संवाद कायम किया गया था। कहा जाए, तो सूचना का अधिकार कानून नागरिकों के संघर्ष का परिणाम था। अब मोदी सरकार संशोधन के जरिए उसे अप्रासंगिक बनाने पर आमादा दिख रही है। लोकतंत्र और संविधान के लिहाज से देखा जाए तो प्रस्तावित संशोधन न केवल उत्तरदायित्व, बल्कि संघवाद के विचार पर भी  हमला है। बहरहाल, कोई यह न समझे कि सूचना के अधिकार को कुंद करने की पहले कोशिश नहीं हुई थी। सच तो यह है कि कानून बनने के तुरंत बाद से ही इसमें संशोधन करने की सरकारी कोशिशें होने लगी थीं, मगर अधिकार कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों की सतत निगहबानी के चलते सफल नहीं हो पाई थीं। आम रूप से यही आशा थी कि आगे इस कानून को और भी मजबूती मिलेगी, परंतु तब कहां किसी को पता था कि एक दिन कोई ऐसी भी सरकार आएगी, जो मजबूत करने के बदले कानून के ही पर कतरने लगेगी। 
प्रस्तावित संशोधन विधेयक लोक सभा से पारित भी हो चुका है। दिलचस्प यह कि विधेयक पारित करने के पहले सरकार ने इस मुद्दे पर बहस कराने की जरूरत भी नहीं समझी, जबकि सूचना के अधिकार को कानूनी जामा पहनाने के पहले उस पर खूब बहस हुई थी। सरकार से बाहर के लोगों की राय भी ली गई थी। इतने महत्त्वपूर्ण कानून में बिना बहस-मुबाहिस के संशोधन के चलते सरकार की मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है। मोदी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून के सेक्शन 13, 16 और 27 में संशोधन का प्रस्ताव किया है। मालूम हो कि ये सेक्शन केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्तों को चुनाव आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों को मुख्य सचिव की हैसियत प्रदान करते हैं, ताकि वे स्वतंत्र और प्रभावी ढंग से काम कर सकें। अब केंद्र सरकार इस संरचना को ही ध्वस्त करने में जुट गई है। परिणामस्वरूप केंद्र और राज्य सुचना आयुक्तों का कार्यकाल, वेतन-भत्ते और सेवा की अन्य शत्रे आदि तय करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के हाथों में होगा। 
वैसे लोक सभा में विधेयक पेश करते हुए केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह ने जोर देकर कहा कि सरकार का यह कदम बड़ा ही उदारतापूर्वक उठाया गया है, और सूचना का अधिकार काननू में कोई बुनियादी बदलाव नहीं होगा। हमें उनके बयान को उनकी मासूमियत नहीं समझना चाहिए क्योंकि सरकार की कार्यशैली से षड्यंत्र की बू आ रही है। सरकार की मंशा अच्छी है तो उसे गुप्त रूप विधेयक पेश करने की क्या जरूरत थी? क्या लोक सभा के पटल पर रखने के पहले विधेयक में प्रस्तावित संशोधनों पर बहस नहीं हो सकती थी? जाहिर है कि सरकार की मंशा में खोट है। उसने जिन संशोधनों का प्रस्ताव किया है, उससे सूचना के अधिकार कानून की आत्मा का ही कत्ल हो जाएगा। जब केंद्र सरकार सूचना आयुक्तों की सेवा शतरे, कार्यकाल और वेतन-भत्ते तय करने का अधिकार हासिल कर लेगी तो कहने की आवश्यकता नहीं कि सूचना आयोग की स्वायत्तता ही समाप्त हो जाएगी। वह भी सरकार के किसी अन्य विभाग की तरह ही काम करने के लिए अभिशप्त होगा। जो भी व्यक्ति सूचना आयुक्त बनेगा, उसे सरकार के रहमोकरम पर ही आश्रित रहना होगा। 
आखिर, सरकार को संशोधन में इतनी जल्दी क्यों है? कुछ लोगों का मानना है कि इसके पीछे बड़ी वजह है कि सूचना के अधिकार ने सरकारी दस्तावेज के साथ शक्तिशाली चुनावी उम्मीदवारों के शपथ पत्र की प्रति जांच में सहायक बना और कई आयुक्तों ने उनके बारे में प्रतिकूल जानकारियों को सार्वजनिक किया। इसके चलते अनेक उम्मीदवारों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। इनकार नहीं किया सकता कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) शक्ति और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ सतत चुनौती बना हुआ है। भारत जैसे देश में, जहां कानून का शासन महज माखौल बनकर रह गया हो और भ्रष्टाचार के साथ-साथ शक्ति का लगातार दुरुपयोग होता हो, इस कानून ने खलल डाल दिया है। इसने सत्ता तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ नीति निर्माण में भी उनके हस्तक्षेप के लिए जगह बनाई है। सूचना के अधिकार ने अधिकारियों की मनमानी, विशेषाधिकार और भ्रष्ट शासन के चेहरे से नकाब उतार फेंका है। 
यह कानून सरकार और बाहुबलियों पर लगाम लगाने में किस हद तक सफल रहा है, और किस हद तक उनकी आंखों में खटकता रहा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अब तक 80 सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। हमें किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि सरकार सूचना अधिकार कानून में केवल कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करने की मंशा रखती है। तथ्य छिपा नहीं है कि इस कानून के तहत पूछे गए सवालों से विगत में अनेक बार अनेक शक्तिशाली लोगों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है। सरकार के लिए यह उसकी आंखों में चुभता कांटा है, जिसे मोदी सरकार जल्द से जल्द निकाल फेंकना चाहती है। 
कहते हैं कि सतत निगरानी ही लोकतंत्र का मूल्य होती है। सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल सतत निगरानी के लिए ही तो हो रहा था, लेकिन मोदी सरकार को वह क्योंकर स्वीकार होगा? वे तो अपनी सरकार का एकछत्र साम्राज्य चाहते हैं, और यह कानून इसमें बड़ी बाधा है। प्रस्तावित संशोधन सरकार को अनियंत्रित, भ्रष्ट और दंभी ही बनाएगा। इसलिए देश के नागरिकों को संशोधन का विरोध करना चाहिए क्योंकि वही उनके हक में होगा।