राष्ट्रीय सरोकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी



जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों और अनुच्छेद 35ए खत्म होने के बाद से ही घाटी में मीडिया और खबरों पर लगी पाबंदी के खिलाफ अब आवाजें उठी हैं। सरकार के कश्मीर में स्थिति शांतिपूर्ण और सामान्य होने संबंधी दावों के बावजूद जनता और विशेषकर पत्रकार बिरादरी महसूस करने लगी है कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य नहीं है।
कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक द्वारा उच्चतम न्यायालय में इस तरह की बंदिशों के खिलाफ याचिका लंबित है, लेकिन इस बीच प्रेस काउंसिल ने इसी मामले में हस्तक्षेप की अनुमति मांग कर समूचे प्रकरण को बेहद दिलचस्प बना दिया है। प्रेस काउंसिल का मुख्य कार्य प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करना है लेकिन उसने अपने आवेदन में संचार व्यवस्था और निर्बाध तरीके से आवागमन पर पाबंदी को देश की एकता और सार्वभौमिकता के हित में बताया है। इस प्रकरण के बाद अब यह सवाल उठ सकता है कि अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है या फिर राष्ट्र की एकता और अखंडता के हित में कुछ समय के लिये इस तरह की पाबंदी।
प्रेस काउंसिल के सदस्यों का कहना है कि मीडिया पर पाबंदियों के समर्थन में शीर्ष अदालत में आवेदन दायर करने के निर्णय से उनका कोई सरोकार नहीं है और यह प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सी.के. प्रसाद का अकेले लिया गया निर्णय है। प्रेस काउंसिल के सदस्यों का दावा है कि 22 अगस्त की बैठक में इस विषय पर चर्चा हुई थी और इसमें भाग लेने गए पत्रकारों ने कश्मीर में मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी लगाये जाने पर आक्रोश भी व्यक्त किया था।
जहां तक सवाल प्रेस की आजादी का है तो वह हमें संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत मिला है लेकिन यह अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पडऩे पर अनुच्छेद 19(2) के तहत इसे नियंत्रित किया जा सकता है। इस संबंध में न्यायालय के कई निर्णय भी हैं।
सोशल मीडिया के इस दौर में खबरों और तथ्यों को छिपाना आसान नहीं है। मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी लगाने का नतीजा यह है कि सोशल मीडिया या दूसरे स्रोतों से मिल रही जानकारियों का इस समय बोलबाला है। कोई नहीं जानता कि इस तरह निकल रही खबरों की सच्चाई क्या है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया या डिजिटल युग में अभिव्यक्ति के नाम पर संयमित और मर्यादित भाषा का विलोप होने लगा है। इससे पहले कि डिजिटल युग में अभिव्यक्ति के मामले में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का अवसर सरकार या न्यायपालिका को देने से बेहतर है कि हम स्वयं एक लक्ष्मण रेखा निर्धारित करें।
आपातकाल का दौर छोड़ दें तो देश में आजादी के 71 साल के दौरान शायद ही कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ी हो। लेकिन डिजिटल मीडिया और फेक न्यूज की मायावी दुनिया में जिस तरह से परिणामों से बेखबर हर मुद्दे पर की जा रही टीका-टिप्पणी को देखते हुए अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर मन में कई शंकाएं उत्पन्न होने लगती हैं।
यह सही है कि अनुच्छेद 370 के प्रावधान रद्द करने के निर्णय के बाद से जम्मू-कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं है और सरकार को लगता है कि मीडिया को खुली छूट देने से स्थिति बिगड़ सकती है। मगर, मीडिया के कामकाज को पूरी तरह बाधित करना किसी भी स्थिति में न्यायोचित नहीं है। इस तरह के नियंत्रण से निश्चित ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और प्रहरी की भूमिका निभाने वाली मीडिया के स्वतंत्र रूप से काम करने के मौलिक अधिकार के हित में नहीं है। सरकार को चाहिए कि कुछ नियंत्रणों के साथ जम्मू-कश्मीर में मीडिया को काम करने की छूट दे।
कश्मीर में हालात तेजी से सामान्य होने का दावा कर रही सरकार को पत्रकारों को घाटी में जाने देने और हकीकत से रूबरू होने की अनुमति देनी चाहिए। यदि सरकार ऐसा करती है तो इसके दो लाभ होंगे। पहला तो यह कि अगर वहां छिटपुट घटनाओं के अलावा स्थिति सामान्य है तो कश्मीर टाइम्स सहित सारा मीडिया इस सच्चाई को स्वतंत्र रूप से सामने रखकर उन तत्वों की हवा निकालने में मददगार होगा जो यह कहते नहीं थक रहे कि स्थिति गंभीर है। दूसरा अगर मीडिया गैर-जिम्मेदारी भरी भूमिका निभाता है तो ऐसे मामलों से निपटने के लिये सरकार के पास कानून के तहत कार्रवाई का अधिकार है।
सरकार को चाहिए कि वह मीडिया को घाटी में अपना काम करने की इजाजत दे। सरकार को अगर लगता है कि मीडिया की जमात का कोई सदस्य वस्तुस्थिति की जानकारी देने के बजाय भड़काने वाले समाचार प्रेषित कर रहा है तो उसके खिलाफ वह कार्रवाई कर सकती है।
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