समस्या का स्थायी समाधान तलाशें


रोहित कौशिक
इस समय देश के अनेक हिस्से बाढ़ से जूझ रहे हैं। महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक और गुजरात में स्थिति भयावह है। मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और असम में भी बाढ़ ने कहर बरपाया है। विभिन्न सूत्रों से बाढ़ प्रभावित लोगों के भिन्न-भिन्न आंकड़े आ रहे हैं। हालांकि बाढ़ से प्रभावित लोगों का आंकड़ा महत्वपूर्ण नहीं है, यह घट-बढ़ सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि हम बाढ़ से प्रभावित लोगों की बेबसी और दयनीय स्थिति का ठीक से जायजा नहीं ले पा रहे हैं। इन दोनों ही राज्यों में बाढ़ से मरने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बिहार और असम के कई गांव पूरी तरह जलमग्न हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि लोग शिविरों में रहने के लिए मजबूर हैं। बिहार, असम और उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, असम, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर के राज्यों में अगले कुछ दिनों में भारी बारिश की सम्भावना व्यक्त की गई है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में कई स्थान ऐसे हैं कि जहां एक ही इलाके को बारी-बारी से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ता है। विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए जिस तरह से जंगलों को नष्ट किया गया और पेड़ों की कटाई की गई, उसने स्थिति को और भयावह बना दिया। इस भयावह स्थिति के कारण मानसून तो प्रभावित हुआ ही, भूक्षरण एवं नदियों द्वारा कटाव किए जाने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इस समय जहां एक ओर बाढ़ के कारण आम जनता संकट का सामना कर रही है वहीं दूसरी ओर बाढ़ पर राजनीति भी शुरू हो गई है।
बाढ़ और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियां भी हैं। सवाल यह है कि क्या हम प्रकृति की इन चेतावनियों को समझ पाते हैं। यह विडम्बना ही है कि पहले से अधिक पढ़े-लिखे समाज में प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर जीवन जीने की समझदारी अभी भी विकसित नहीं हो पाई है। बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं लेकिन उनका अपना एक अलग शास्त्र और तंत्र था।
इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते। दरअसल प्रकृति के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हम कर रहे हैं, उसी तरह का सौतेला व्यवहार प्रकृति भी हमारे साथ कर रही है। पिछले कुछ समय से भारत को जिस तरह से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ा है, वह आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन पर आधारित उस रिपोर्ट का ध्यान दिलाती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण देश को बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं झेलने की चेतावनी दी गई थी। आज ग्लोबल वार्मिंग जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम एक बनी-बनाई लीक पर ही चलना चाहते हैं। यही कारण है कि कभी हम आईपीसीसी की रिपोर्ट को सन्देह की नजर से देखते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को अनावश्यक हौवा मानने लगते हैं।
दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा, यह नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है। यही कारण है कि हम बार-बार बाढ़ और सूखे का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाते, जिससे कि लोगों के जान-माल की समय रहते पर्याप्त सुरक्षा हो सके। शहरों और कस्बों में होने वाले जलभराव के लिए काफी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षों में कस्बों और शहरों में जो विकास और विस्तार हुआ है, उसमें पानी की समुचित निकासी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। यही कारण है कि देश के अधिकतर कस्बों और शहरों में थोड़ी बारिश होने पर ही सड़कों पर पानी भर जाता है।
गौरतलब है कि 1950 में हमारे यहां लगभग ढाई करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी थी जहां बाढ़ आती थी लेकिन अब लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है, जिस पर बाढ़ आती है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग अस्सी फीसद पानी गिरता है। कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं। इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। अनुमान है कि 2050 तक हमारे देश की आबादी लगभग एक सौ अस्सी करोड़ होगी। ऐसी स्थिति में पानी के समान वितरण की व्यवस्था किए बगैर हम विकास के किसी भी आयाम के बारे में नहीं सोच सकते।
हमें यह सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में बाढ़ के कारण हर साल लगभग एक हजार करोड़ रुपए का नुकसान होता है। हालांकि हमारे देश में सूखे और बाढ़ से पीडि़त लोगों के लिए अनेक घोषणाएं की जाती हैं लेकिन मात्र घोषणाओं के सहारे ही पीडि़तों का दर्द कम नहीं होता। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि इन घोषणाओं का लाभ वास्तव में पीडि़तों तक भी पहुंचे।
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