उन्नाव में पुलिस ही नहीं, पूरी व्यवस्था की संलिप्तता के चलते पीडि़ता खुद जिंदगी और मौत के बीच झूल रही

उन्नाव रेप केस दिल्ली के निर्भया कांड से भी ज्यादा दहला देने वाला है। निर्भया कांड में पुलिस के निकम्मेपन के चलते बेखौफ बलात्कारियों की बर्बरता के परिणामस्वरूप पैरा मेडिकल छात्रा की अंतत: जान ही चली गयी थी, जबकि उन्नाव में पुलिस ही नहीं, पूरी व्यवस्था की संलिप्तता के चलते पीडि़ता खुद जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है, तो उसके परिवार के तीन सदस्य अभी तक जान गंवा चुके हैं। फिल्मी पटकथा-सा लगने वाला उन्नाव रेप केस का घटनाक्रम किसी सभ्य समाज और कानून-व्यवस्था पर कितना बड़ा सवालिया निशान है, इसका अंदाजा देश की सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है : 'देश में कानून के अनुसार कुछ भी नहीं हो रहा है।Ó बलात्कार के आरोपी के पक्ष में गोलबंद व्यवस्था की विकृति से आहत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने यह टिप्पणी एक अगस्त को मामले की सुनवाई के दौरान की। सर्वोच्च अदालत ने कड़ी टिप्पणियां ही नहीं की, कड़े निर्देश भी दिये, जिनके तहत पीडि़ता की कार को ट्रक से टक्कर मारने के मामले की अधिकतम दो सप्ताह में सीबीआई जांच, रेप समेत पांच मामलों की सुनवाई उत्तर प्रदेश से दिल्ली ट्रांसफर करना और फैसले के लिए 45 दिन की समय सीमा भी शामिल है।
निश्चय ही दिनोदिन निराश और हताश होते समाज के लिए सर्वोच्च अदालत की टिप्पणियां और निर्देश उम्मीद की किरण जगाते हैं, लेकिन ये विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पुलिस-प्रशासनिक ही नहीं, राजनीतिक व्यवस्था के भी तेजी से विकृत होने के प्रामाणिक संकेतक भी हैं। उन्नाव प्रकरण हमारी शासन व्यवस्था के कमोबेश सभी किरदारों को बेनकाब करने वाला है। एक नाबालिग लड़की से बलात्कार का आरोप निर्वाचित जनप्रतिनिधि कुलदीप सिंह सेंगर पर है, जो विधायक के रूप में कानून निर्माता की श्रेणी में भी है। उस बलात्कार के एक हफ्ते बाद लड़की और उसकी मां से सामूहिक बलात्कार किया गया। बलात्कार का मामला दर्ज कराने पर पूरे परिवार को ही हरसंभव तरीके से उत्पीडि़त और आतंकित किये जाने के भी आरोप हैं। पिता और चाचा को अवैध हथियार रखने के मामले में फंसाया गया, जिसमें खुद पुलिस अधिकारी आरोपी है। पुलिस हिरासत में पीडि़ता के पिता की मौत हो गयी, जिसमें विधायक का भाई भी आरोपी है। उन्नाव रेप केस वर्ष 2017 का मामला है। उसी वर्ष समाजवादी पार्टी के कथित जंगल राज को समाप्त कर उत्तर प्रदेश में भाजपा लंबे अंतराल के बाद सत्ता में लौटी थी। भाजपा आलाकमान ने तमाम अटकलों को गलत साबित करते हुए एक संन्यासी गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन इस सत्ता परिवर्तन से असल में क्या बदला  अपराधियों की संरक्षक बतायी जाने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में रह चुके कुलदीप सिंह सेंगर इस बार भाजपा के टिकट पर विधायक चुने गये। जाहिर है, भाजपाई गंगा में डुबकी लगाकर शैतान से संत हो जाने वाले सेंगर इकलौते सफेदपोश नहीं हैं।
सेंगर का असली चेहरा और चरित्र वर्ष 2017 में ही उन्नाव कांड से पूरी तरह बेनकाब हो गया था, पर साफ-सुथरी राजनीतिक संस्कृति की बात करने वाली भाजपा ने अपने इस 'कुलदीपकÓ को पार्टी से बाहर का रास्ता तब दिखाया, जब सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद उसकी चौतरफा फजीहत होने लगी। जिस व्यवस्था में सत्तारूढ़ दल का निर्वाचित प्रतिनिधि ही बलात्कार जैसा घृणित अपराध करे, विरोध करने पर पूरे परिवार को ही तबाह करने पर आमादा हो जाये, और जिस पुलिस-प्रशासनिक-राजनीतिक व्यवस्था पर कानून एवं न्याय सम्मत समाज बनाने की जिम्मेदारी-जवाबदेही हो—वही अपराधी को बचाने के लिए शीर्षासन करने लगे, तो फिर शांतिप्रिय आम नागरिक कहां जाये  नैतिक शक्ति और संघर्ष के प्रवचन देना आसान है, पर क्या एक साधारण नागरिक सर्वशक्तिमान व्यवस्था का मुकाबला कर सकता है  ऐसा करने की जुर्रत का भी क्या अंजाम हो सकता है—उन्नाव कांड उसकी बानगी है, और ऐसी बानगियां इस देश में अनगिनत मिल जायेंगी।
बेशक सेंगर देश के पहले ऐसे निर्वाचित जन प्रतिनिधि नहीं हैं, जिन पर बलात्कार सरीखे जघन्य अपराध का आरोप है। जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति हमारे देश में पनप रही है, उसके मद्देनजर यह भी तय मानिए कि ऐसा करने वालों में उनका नाम अंतिम भी नहीं होगा। इसलिए एक आरोपी व्यक्ति के रूप में कुलदीप सिंह सेंगर को कोसने से जरूरी है कि समाज में व्याप्त राजनीति के अपराधीकरण के नासूर की समय रहते शल्य चिकित्सा की जाये। इस सच से मुंह नहीं चुराया जाना चाहिए कि पहली बार प्रधानमंत्री बन कर पहुंचने पर नरेंद्र मोदी ने जिस संसद को लोकतंत्र का मंदिर बताते हुए ड्योढी पर शीश नवाया था, उसमें अपराध से दागी दामन वाले सांसदों की संख्या चुनाव-दर-चुनाव बढ़ती जा रही है। इसी साल अप्रैल-मई में सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव हुए। चुनाव सुधार के लिए सक्रिय एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़ों के मुताबिक नयी लोकसभा में दागी सांसदों का प्रतिशत पिछली लोकसभा के मुकाबले दो-चार नहीं, बल्कि 26 प्रतिशत बढ़ गया है।
विडंबना देखिए कि यह वृद्धि तब है, जब 2014 में पिछले लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने दागी जन प्रतिनिधियों के लंबित मामलों की एक वर्ष की समय सीमा में निपटारे की व्यवस्था करने का वादा किया था। वह वादा तो वफा नहीं हुआ, अलबत्ता कुलदीप सिंह सेंगर और शमशेर सिंह राणा सरीखे दागी राजनेता अवश्य हवा का रुख भांप कर दूसरे दलों से भाजपा में आ गये। भाजपा ने भी उन्हें पलक-पांवड़ों पर बिठाया। दरअसल, राजनेताओं के दामन पर लगे दागों से किसी भी राजनीतिक दल को परहेज नहीं। शायद बाहुबली और धनबली राजनीति में ये दाग उन्हें अच्छे लगते हैं। आखिर मौसेरे भाई जो ठहरे! अगर ऐसा नहीं होता तो राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने की बातें करने वाले दल बातों से उलट आचरण नहीं करते। जिन राजनीतिक दलों की मानवीय संवेदनाएं उन्नाव कांड पर अचानक जाग उठी हैं, उनमें भी कुलदीप सेंगरों की कमी नहीं है। खुद सेंगर सत्ता की हवा में भगवा ओढऩे से पहले सपाई और बसपाई रह चुके हैं। बसपा के एक नवनिर्वाचित सांसद भी बलात्कार के आरोपी हैं। सपा में भी ऐसे अपराधों के आरोपी कई निकल आयेंगे।
सत्रहवीं लोकसभा में दागी सांसदों के आंकड़ों पर ही नजऱ डालें तो 303 सीटें जीतने पर आत्ममुग्ध भाजपा के 116 यानी 39 प्रतिशत सांसद दागी हैं। महज 52 सीटें ही जीत पायी कांग्रेस प्रतिशत के लिहाज से इस मामले में भाजपा से आगे निकल गयी है। कांग्रेस के 29 यानी 57 प्रतिशत सांसद दागी हैं। दागी सांसदों के मामले में प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस के बाद उसका मित्र दल द्रमुक आता है, जिसके 10 यानी 43 प्रतिशत सांसद दागी हैं। फिर पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस आती है, जिसके 9 यानी 41 प्रतिशत सांसद दागी हैं। कभी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर एकछत्र शासन करने वाली सपा-बसपा की हैसियत तो अब घट गयी है, लेकिन सामाजिक न्याय के स्वयंभू संरक्षकों में से जनता दल यूनाइटेड दागी सांसदों के मामले में सबसे ऊपर है। उसके 13 यानी 81 प्रतिशत सांसद दागी हैं। लोकतंत्र के पाक दामन को कलंकित करने वालों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर ही पिछले साल अगस्त में सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया था कि राजनीतिक दलों की मान्यता को दागी उम्मीदवार न खड़ा करने की शर्त से जोड़ दिया जाये, तो केंद्र सरकार के ही वकील के.के. वेणुगोपालन ने जोरदार विरोध करते हुए कहा था कि कानून बनाना संसद का अधिकार है और यह मामला संसद के समक्ष विचाराधीन है। लगभग साल बीत गया, पर संसद राजनीति के शुद्धीकरण की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कर पायी। हालात यह हैं कि राजनीति को बाहुबल और धनबल के चंगुल से मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग और न्यायपालिका को कुछ करने नहीं दिया जाता, और संसद कुछ करती नजऱ नहीं आती। ऐसे में हर दल और हर राज्य में समाज के लिए खतरा बनने वाले सेंगरों की संख्या बढ़ेगी ही, पर उसकी परवाह किसे है 
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