आज भी प्रासंगिक मानवतावादी सोच



अपने ओजस्वी विचारों और आदर्शों के कारण सदैव युवाओं के प्रेरणास्रोत और आदर्श व्यक्तित्व के धनी माने जाते रहे हैं स्वामी विवेकानंद। वे 39 वर्षों के अपने छोटे से जीवनकाल में समूचे विश्व को अपने अलौकिक विचारों की ऐसी बेशकीमती पूंजी सौंप गए जो आने वाली अनेक शताब्दियों तक समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी। 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में जन्मे नरेन्द्र नाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए। युवा शक्ति का आह्वान करते हुए उन्होंने एक मंत्र दिया था-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतÓ अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि मंजिल प्राप्त न हो जाए।Ó उन्होंने ऐसे वैश्विक समाज की कल्पना की थी, जिसमें देश, धर्म, नस्ल या जाति के आधार पर इनसान-इनसान में कोई भेद न किया जाता हो। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने वेदों तथा दर्शन शास्त्र का ज्ञान हासिल कर लिया था।
जब भी कभी स्वामी विवेकानंद की चर्चा होती है तो अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद में वर्ष 1893 में दिए गए उनके ओजस्वी भाषण की चर्चा अवश्य होती है। आज से ठीक 126 वर्ष पूर्व विवेकानंद ने सिर्फ 30 साल की उम्र में विश्व धर्म संसद में जो भाषण दिया था, उसके जरिये उन्होंने न केवल अमेरिकावासियों का बल्कि पूरी दुनिया के लोगों का दिल जीत लिया था। हालांकि वे शिकागो की धर्म संसद में न तो भारत की किसी मान्य संस्था द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि थे और न ही उन्हें किसी प्रकार का निमंत्रण मिला था बल्कि अपने अनुयायियों के अनुरोध पर उन्होंने वहां जाने का मन बनाया था। जब वे बोस्टन में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राइट से मिले तो प्रो. राइट ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए विश्व धर्म संसद में उन्हें बतौर प्रतिनिधि सम्मिलित कराते हुए स्थान और सम्मान दिलाया।
11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलनÓ में हिन्दू धर्म पर अपने प्रेरणात्मक भाषण की शुरुआत जब उन्होंने 'मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनोंÓ के साथ की थी तो बहुत देर तक तालियों की गडग़ड़़ाहट होती रही थी। अपने उस भाषण के जरिये उन्होंने दुनियाभर में भारतीय अध्यात्म का डंका बजाया था और उसके बाद विदेशी मीडिया तथा वक्ताओं द्वारा भी स्वामीजी को धर्म संसद में सबसे महान व्यक्तित्व एवं ईश्वरीय शक्ति प्राप्त सबसे लोकप्रिय वक्ता बताया जाता रहा।
शिकागो में दिया उनका भाषण आज 126 साल बाद भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय माना गया था। उन्होंने पूरी दुनिया के समक्ष भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश करते हुए कहा था-अमेरिका निवासी भगिनी और भ्रातृगण! आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है, उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परम्परा और सभी धर्मों की जननी की ओर से आपको धन्यवाद देता हूं, सभी जातियों और सम्प्रदायों के लाखों-करोड़ों हिन्दुओं की ओर से आपका आभार व्यक्त करता हूं। भाषण में साम्प्रदायिकता और कट्टरता पर तंज कसते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि साम्प्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है, जिन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है, न जाने कितनी सभ्यताएं तबाह हुई हैं और कितने ही देश मिटा दिए गए। हिंसा के जरिये धरती को रक्तरंजित करने वाले लोगों पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा था कि यदि ये खौफनाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज आज के मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर होता। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा, फिर चाहे वह तलवार से हो या कलम से।
उन्होंने गीता के उपदेशों का भी उल्लेख किया था, जिनमें कहा गया है कि जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं, लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, लेकिन आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं। विवेकानंद के बारे में कहा जाता है कि वे स्वयं भूखे रहकर अतिथियों को खाना खिलाते थे और बाहर ठंड में सो जाते थे। उनका व्यक्तित्व कितना विराट था, यह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो आप विवेकानंद को पढि़ए। जब विवेकानंद शिकागो धर्म संसद से भारत वापस लौटे तो उन्होंने समस्त देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पड़े झाडिय़़ों, जंगलों, पहाड़ों और पर्वतों से।ÓÓ उनके इस आह्वान के बाद कांग्रेस को स्वाधीनता संग्राम में देशवासियों का भरपूर समर्थन मिला और इस प्रकार वे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के भी बहुत बड़े प्रेरणास्रोत बने।
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