कुख्यात बागियों और डकैतों के प्रकोप से कोई डेढ़ दशक पहले बुंदेलखंड को मुक्ति मिली तो जैसे अमन-चैन लौट आया, नए सिरे से खेती-किसानी की शुरुआत की गयी। भयातुर आम जनता और पलायन कर चुके उनके परिजन मिल-जुलकर कुछ गुजरने के गीत गाने लगे। फागुन की धमक में, चैत की चुहल में और कुआर के कुनमुनेपन में कजरी-आल्हा और बिरहा की स्वर-लहरियां गूंजने लगीं। लेकिन मौसम को जैसे यह सब मंजूर नहीं था। इनसान की कुदरती संसाधनों लकडिय़ों आदि को लेकर बढ़ती भूख से पहाड़ नंगे हुए तो खनिज को लेकर पहाड़ों की छातियां तोड़ी गयीं या धरती के सीने को खुरचकर भारी तबाही मचाई गयी। सदाबहार हरियाली ने जब भूरेपन का रूप धर लिया तो अकाल इस इलाके का स्थायी रूपक बन गया।
केन-बेतवा-टोंस और सोन नदियां इस इलाके को जरूर दुलारती और पोसती रही हैं लेकिन बारिश के बदले आकाश से पिघलते-गिरते अग्नि-पिंडों से यहां की धरती जो कभी बहुत उर्वर थी, आज बंजर और बेहाल है। बीते कुछ दशकों से आबोहवा में घुली तुर्शी ने भयानक रूप अख्तियार कर लिया है। तीन-चार सालों से फसल की लागत निकाल पाने में किसान असफल हैं तो सल्फास चाटकर और फंदे पर झूल जाना लोकमानस की मजबूरी बनती जा रही है। कहीं किसान अपने टोला-टप्पर छोड़कर आजीविका कमाने की राह पकड़ते हैं तो कहीं बेतवा के पथरीली-धारदार दामन में कूदकर सांसारिक झंझटों से मुक्त हो जाना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने महाजनों से कर्ज लेकर फसल तैयार की है, जिस पर सूखे ने उन्हें बर्बादी की ओर ढकेल दिया।
इस साल भी सावन में कई-कई दिन काले-काले बदरा बुंदेलखंड में बिन बरसे निकल गए। बैरी बादल अपने पीछे छोड़ गए प्यासी धरती और बेचारे किसानों का कुम्हलाया चेहरा, नतीजा सामने है। बुंदेलखंड में अकाल का बावलापन लाखों की आबादी को हिन्दुस्तान के कई कोनों तक बिखरने को मजबूर कर रहा है। बुंदेलखंड के नाम पर राहत की थालियां परोसती अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और सूखा राहत के पैकेज के पार्सल से स्थानीय एनजीओ को मालामाल करता दिल्ली और लखनऊ का बाबूतंत्र भी अब बुंदेलखंड के नाम से सतर्क होता दिख रहा है।
नि:संदेह हालात बेइंतहा इनसानी लालचों से उपजी घटनाओं की शृंखला है। मगर स्थाई समाधान की चिंता कहीं नहीं है। सच तो यही है कि जब इनसान की महत्ता प्रकृति से ज्यादा आंकी जाती है तो फिर राहत-पुनर्वास के पैकेज परोसने का सिलसिला तेज होने लगता है। पिछली सदी के आठवें दशक से देशभर में गरीबी और बदहाली के द्वीपों और बियावानों को चिन्हित कर उन्हें हरा-भरा बनाने की जो कवायद शुरू हुई, उसी कवायद में लूट के तीर्थों में कालाहांडी-पलामू और बुंदेलखंड जैसे इलाके तब से फलने-फूलने लगे। नतीजतन, बदहाली जस की तस बनी रही, आबोहवा को लेकर न जनचेतना का विकास हुआ और न कुदरती संसाधनों का दोहन रुका।
यहां की ज़मीन कभी उपजाऊ थी लेकिन पेड़ों की कटाई से बारिश की धार में पानी के साथ मुलायम मिट्टी बह गयी और जो रह गयी वह थी कड़ी माटी। उस माटी की ठूंठ गरीब-गुरबों को मुंह चिढ़ाती हैं। राहत की योजनाओं ने गरीबों की थाली में बाहर का अन्न परोसा, विडंबना देखिये, 'दाल का कटोराÓ कहे जाने वाले इस इलाके में विकास के शिल्पकारों ने भूख से बिलबिलाते लोगों की थालियों में ऑस्ट्रेलिया और म्यांमार के आयातित दालें परोसी। लेकिन उसी ज़मीन पर अनाज, ख़ास तौर से दाल की भरपूर पैदावार की कोई मुकम्मल और मजबूत वैज्ञानिक योजना लागू करने में सरकारें विफल रहीं। सरकार के कल्याणकारी योजनाओं ने वंचितों के अंतर्मन में आत्मदया की भावना से पेट भरने की जो आदत डाली है, आम आदमी आत्महीनता का शिकार हो गया। लोग आलसी हो गए, अपने देस में काम करना उन्हें मंजूर नहीं हुआ।
इस साल 'दाल का कटोराÓ कहे जाने वाले बुंदेलखंड में आद्र हवाएं भी नसीब नहीं हुईं, इस तपती धूप के साथ घुले उमस में बाजरा, मूंग, उर्द, धान की फसलों को पीला करके रख दिया। मतलब इस साल किसान के कटोरे में न दाल दिखेगी और न दूध, क्योंकि चारे-पानी की कमी में मवेशियों को बेच देना मजबूरी बन गयी। खेती के लिए कुछ किसानों ने जुगाड़ कर नलकूप की मदद ली तो बीच-बीच में चली तेज आंधी और बूंदाबांदी ने फसल को जमींदोज कर दिया। नतीजा है कि अब रबी की फसल में भी किसानों को रोना पड़ेगा।
हां, इसी अकाल और राहत के पैकेज के बीच उपाय के रास्ते बताते कुछ योद्धा वहां नजर आते हैं जो निश्चित तौर से बुंदेलखंड की उदासियों और अवसाद के बीच प्रेरणा बनते दिखते हैं। सवाल यही है हजारों ताल-तलैया और तालाबों से पानीदार रहे यहां के समाज को फिर से बारिश की बूंदों से सराबोर कौन करे यदि स्थानीय समाज और प्रशासन में आसीन जल-संतों के प्रयास से 15 हजार से कहीं ज्यादा तालाबों को फिर से जि़ंदा कर देवास जैसे बंजर में बहार लायी जा सकती है तो फिर बुंदेलखंड बदहाल क्यों देवास में शासकीय प्रयासों से तालाबों को पुनर्जीवित कर अभूतपूर्व बदलाव की कहानियां लिखी गयीं। जिन गांवों में तमंचे चटकते थे वहां समाज के पानीदार होते ही गांवों से सिक्के खनकने की आवाज आने लगी तो बुंदेलखंड में ऐसी खुशहाली क्यों नहीं आ सकती
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पानीदार बनाने की तरकीब सिखाने की जरूरत