जिजीविषा का दीया सदा जलाये रखिये


आज हम देखते हैं कि जरा-सी बात पर आदमी घबरा कर आत्महत्या कर लेता है, निराश और हताश होकर इस संसार को ही व्यर्थ मान लेता है और फिर पूरे जीवन को ही नरक बना लेता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है—
'नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो।Ó
भारतीय संस्कृति ने तो सदा से ही 'कर्मवादÓ को मानव-जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और शाश्वत जीवन मूल्य माना है। 'श्रीमद्भगवद्गीताÓ का तो अमृत संदेश ही कर्मवाद का है—
'कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।Ó
अर्थात हे मानव, तेरा अधिकार केवल कर्म करने पर ही है, फल की कामना करना तेरा अधिकार नहीं है। जब दीपोत्सव के उत्साह में बैठा था तो एक मित्र ने मुझे प्रेरणाशक्ति से परिपूर्ण संदेश भेजा तो मुझे लगा कि यह संदेश तो भारतीय संस्कृति के शाश्वत सत्य को बेहद खूबसूरती से व्यक्त कर रहा है। वह इस प्रकार है—
'एक घर मे 'पांचÓ दीये जल रहे थे। एक दिन पहले एक दीये ने कहा, 'मैं इतना जला हूं, लेकिन जलकर भी मेरी रोशनी की लोगों को कोई कद्र ही नहीं है तो बेहतर यही होगा कि मैं 'बुझÓ जाऊं और वह दीया खुद को व्यर्थ समझ कर बुझ गया ।
जानते हैं, वह दीया कौन-सा था? वह दीया था 'उत्साहÓ का प्रतीक। यह देख दूसरा दीया जो 'शांतिÓ का प्रतीक था, कहने लगा, 'अब तो मुझे भी बुझ जाना चाहिए क्योंकि निरंतर शांति की रोशनी देने के बावजूद लोग हिंसा कर रहे हैं, मेरा जलना तो व्यर्थ ही हो गया है।Ó और 'शांतिÓ का दीया भी बुझ गया।
'उत्साहÓ और 'शांतिÓ के दीये बुझने के बाद जो तीसरा दीया 'हिम्मतÓ का जल रहा था, वह भी अपनी हिम्मत खो बैठा और बुझ गया।
'उत्साहÓ, 'शांतिÓ और अब 'हिम्मतÓके दीयों के न रहने पर वहां जल रहे चौथे दीये ने भी बुझना ही उचित समझा और चौथा दीया जो 'समृद्धिÓ का प्रतीक था, बुझ गया।
इन सभी दीयों के बुझने के बाद केवल 'पांचवां दीया ही अब अकेला जल रहा था। हालांकि, यह पांचवां दीया सबसे छोटा था, मगर फिर भी वह निरंतर जल रहा था। तभी उस घर में एक लड़के ने प्रवेश किया। उसने देखा कि उस घर में सिर्फ 'एक ही दीयाÓ जल रहा है। वह जाने क्यों विचित्र-सी खुशी से भर कर झूम उठा।
चार दीये बुझने की वजह से वह दुखी नहीं हुआ, बल्कि यह सोचकर कि 'कम से कमÓ एक दीया तो जल रहा है, वह बेहद खुश हुआ और उसने तुरंत जलता हुआ 'पांचवां दीयाÓ उठाया और बाकी के चार बुझे हुए दीये फिर से जला दिये ।
क्या आप जानते हैं कि वह पांचवां अनोखा दीया कौन-सा था? वह पांचवां दीया था 'उम्मीदÓ यानी मन के भीतर सदा रहने वाली 'आशाÓ का दीया। तो बस, संकल्प लीजिए कि आप भी कभी अपने मन के भीतर जलने वाले इस 'पांचवें आशा के दीयेÓ को बुझने नहीं देंगे और शेष बुझ चुके दीयों को भी इसी दीये की लौ से जलाए रखेंगे।
सदा याद रखिए कि अपने घर में अर्थात अपने मन में हमेशा 'उम्मीदÓ अर्थात अदम्य जिजीविषा का दीया जलाए रखिए, ताकि जीवन के अमृत को आप बचाए रख सकें और दूसरों को यह अमृत दे सकें।
चाहे सब दीये बुझ जाएं, लेकिन आपके मन का 'उम्मीद का दीयाÓ कदापि नहीं बुझना चाहिए क्योंकि यह एक ही दीया काफी है बाकी सब बुझे हुए दीयों को जलाने के लिए और जीवन को आगे बढ़ाने के लिए। हमें विश्व कृति में सम्मिलित हो चुकी 'कामायनीÓ में महाकवि जय शंकर प्रसाद का संदेश सदा याद रखना होगा।
'कहा आगंतुक ने सस्नेह,
अरे तुम इतने हुए अधीर।
हार बैठे जीवन का दांव,
जीतते मर कर जिसको वीर।Ó
तो हमें अपनी भारतीय संस्कृति के उस अमृत संदेश को स्वयं भी याद रखना होगा और दूसरों को भी बताना होगा कि दीप बन कर जीयो, क्योंकि एक दीप भले ही छोटा हो, लेकिन अंधकार से लडऩे की क्षमता उसमें भरपूर होती है। हमारा संदेश तो विश्व में गूंज रहा है—
'असतो मा सद्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय।Ó
अर्थात् हे प्रभु, हम असत्य से सत्य की ओर चलें, मृत्यु से अमृतत्व की ओर चलें, तमस से ज्योति की ओर चलें। याद रखिए, तमस को जीतने के लिए सभी दीयों को जलाना आवश्यक है, लेकिन सबसे आवश्यक होता है 'आशा-दीपÓ अर्थात जिजीविषा के दीपक को अपने भीतर सदा जलाये रखना।
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