नयी ऊर्जा-उमंग की संवाहक पर्व शृंखला



पिछला महीना देश में उजाले के त्योहारों का था। पहले नवरात्रों के दिन शुरू हुए, लोगों ने अपने अंतर्मन को धो-पोंछकर बेहतर मूल्यों के लिए समर्पित कर दिया। उसके बाद रामलीला शुरू हुई, दशहरा आया लेकिन टूटते हुए परिवारों के इस विखंडित होते समाज में जब करवा चौथ आया तो देश के मध्यम वर्ग को लगा कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को कभी भी त्याग नहीं सकेंगे। इसके बाद अमावस की घनी अंधेरी रात और उसमें जलते हुए दीयों का आह्वान करती हुई दीवाली आई। ये मन के अंधेरे छांटने की और बेहतर मूल्यों के निरूपण की दीवाली थी। अपनी धरा की इस सांस्कृतिक गरिमा को याद करने की दीवाली थी जो कभी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी के मर्यादा मूल्यों की स्थापना से शुरू हुई थी। फिर आया विश्वकर्मा दिवस, जो देश में श्रम के महत्व को रेखांकित कर रहा था और नवनिर्माण का आह्वान कर रहा था। और अंत में भैया दूज, जिसमें भौतिकवाद की चकाचौंध से टूटते हुए परिवारों में भी बहनों का प्यार किसी मस्तूल की तरह से स्नेह आह्लादित संबंधों को डूबने से बचा रहा था। अभी ये दिन खत्म भी नहीं हुए कि ननकाना साहिब का गलियारा 9 नवम्बर से अपनी बाहें फैलाकर भक्तजनों को 550वां प्रकाशोत्सव मनाने के लिए परम श्रीगुरुधाम के लिए आमंत्रित कर रहा है। सब श्रद्धालु जत्थे जाएंगे। प्रतिदिन दस हजार तक के जत्थों को जाने की इजाजत है। इसमें धर्म-जाति का कोई भेद नहीं।
देश में उजाले के वे दिन इस प्रकार बीते कि उन्होंने देश में फैले अंधेरे और मंदी से उपजे दुर्दिनों की अवस्था को चुनौती दे दी। मोदी काल की दूसरी पारी में जो भी सत्य सामने आ रहे थे, वे आमजन और मध्यम वर्ग को उद्वेलित करने वाले सत्य थे। इसमें मंदी का मंदभाग्य था, ऑटोमोबाइल क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र और रेलवे की दुर्दशा तक फैला हुआ मंद काल था। सरकार के पास सिवाय लाभ देते हुए सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश के सिवा और कोई समाधान नहीं था। बेकारी, गरीबी, निर्धनता का बोलबाला था और थमते हुए उद्योग-धंधों में छंटते हुए कामगार बेकारों की भीड़ बढ़ा रहे थे। ऐसे विक्षुब्ध माहौल में कोई बेहतर दिनों की कल्पना करता भी तो कैसे? लेकिन इन्हीं दिनों में उजाले के इन त्योहारों से माहौल बदल गया, जैसे ही इन त्योहारों के दिन शुरू हुए, देशभर में मध्यम वर्ग के करोड़ों लोगों के उत्साह को देखकर लगता था कि चाहे कुछ भी हो जाए, भारत, भारत ही रहेगा। जिस तरीके से देश के कोने-कोने में इस बार रामलीलाएं हुईं, पारसी थियेटर से लेकर नुक्कड़ नाटक तक की कला का संरक्षण इन रामलीलाओं में हुआ। इसने निश्चय ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मर्यादा मूल्यों का स्फुरण जन-जन के मन में कर दिया।
इसके बाद दशहरा आया और विजयादशमी में लोगों ने महंगाई की मार से संत्रस्त होकर चाहे पुतलों की लम्बाई तो घटा दी लेकिन इन पुतलों को जलाते हुए उन्होंने देश के कोने-कोने में यही कहा कि हम पर्यावरण का पुतला जला रहे हैं, हम भ्रष्टाचार का पुतला जला रहे हैं, हम महंगाई का पुतला जला रहे हैं और हम आतंकवाद का पुतला जला रहे हैं। रावण महापंडित था। उसने पराई स्त्री का अपहरण करने के बाद भी नैतिक मर्यादाओं का पालन किया। दक्षिण भारत के जिस कोने में रावण के पुतले नहीं जले, वह सत्कार था पांडित्य का और अपनी पूजा-अर्चना में एक निश्चय समर्पण का भाव भी था।
एक संदेश था, इस देश के कर्णधारों के लिए कि देश में प्राथमिक शिक्षा का संवैधानिक अधिकार तो आपने दे दिया लेकिन क्या सर्वशिक्षा अभियान के बावजूद देश के निरक्षरों के करीब शिक्षा की रोशनी आ सकी? आज भी दुनिया के चोटी के विश्वविद्यालयों में एक भी विश्वविद्यालय भारत का क्यों नहीं? कहां गई नालंदा, तक्षशिला और हमारे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों की गरिमा? कहां गया वह सत्कार, जबकि भगवान श्रीराम ने मरते हुए रावण के पास लक्ष्मण को भेजा था कि इस महापंडित के दम तोड़ते हुए स्वरों में किसी ऐसी शिक्षा को लेकर आओ, जो युग सत्य बने। आज उसी युग सत्य की तलाश दीवाली के जलते हुए दीये देश के लोगों को दे गए और मध्यम वर्ग ने जिस उत्साह के साथ दीवाली मनाई, उससे लगता था कि धनियों की ऐश्वर्यपूर्ण दीवाली तो उसके सामने बौनी पड़ गई।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। अगला दिन विश्वकर्मा दिवस था, औजारों के साथ मजदूरों से लेकर कलम के मजदूरों तक ने भगवान विश्वकर्मा का स्मरण किया। प्रण किया जिस स्टार्टअप भारत की कल्पना देश कर रहा है, उसके लिए हमारी कलमें, हमारा चिन्तन और औजार जुटे हैं। स्वरोजगार की भावना स्वीकार्य है लेकिन नौकरशाही से लेकर प्रशासनिक चक्रव्यूहों तक एक ही मांग इन साधारण कामगारों की रही कि देश की आम जनता को सुविधाएं दीजिए, सुलभ कर्ज के द्वार खोलिए, उचित प्रशिक्षण दीजिए। नई शिक्षा नीति का निर्माण हो ताकि ये करोड़ों लोग भारत के नवनिर्माण में जुट सकें।
और अंत में विखंडित परिवार, जिनकी खैर-खबर लेने के लिए भारत की दुल्हनों ने अपने-अपने गृह स्वामियों के लिए करवा चौथ के व्रत रखे थे। इन व्रतों में इस बार एक नयी बात देखने को मिली कि पत्नियों ने ही अपने पति की लम्बी उम्र के लिए करवा चौथ के व्रत नहीं रखे बल्कि पतियों ने भी उनके कंधे से कंधे मिलाकर जीवन समर में कूदने वाली इन औरतों के लिए करवा चौथ के व्रत रखने शुरू कर दिए। यूं इस विक्षुब्ध वातावरण में एक नये स्वस्थ चिंतन का सृजन इन उजाले के त्योहारों ने किया। और जहां बाजारवाद की धूम थी, भौतिकवाद की अंधी दौड़ थी, सम्पदा के लिए लड़ते-झगड़ते रिश्तेदार थे, वहां आया भैया दूज का त्योहार, जिसमें बहनों ने अपने भाइयों की लम्बी उम्र की कामना की और उनके माथे पर टीके लगाए ताकि वे देश और समाज के कायाकल्प के लिए एक जिम्मेदार नागरिक के दायित्व का निर्वहन कर सकें।
अंत में कट्टरता और साम्प्रदायिकता की संकीर्ण दीवारों को तोड़कर एक देश से दूसरे देश की ओर वाघा बार्डर से श्रद्धालुओं के जत्थे 9 नवम्बर से 550वां प्रकाशोत्सव मनाने के लिए परमधाम ननकाना साहिब की ओर चल निकलेंगे। एक वर्ष तक ये धार्मिक उत्सव पूरी गरिमा के साथ मनाया जाएगा। उम्मीद करते हैं कि इससे संकीर्णता और शत्रुता की दीवारें टूटेंगी और अगर एक नया वातावरण पैदा नहीं भी होता तो उसका सपना देखने के लिए हौसला तो बहुत से लोगों में पैदा हो जाएगा। उजालों के ये त्योहार और उनके संदेश मंदहाली से डोलते हुए आम आदमी को उद्वेलित कर गये हैं। उम्मीद और आदर्शवाद दे गये हैं। इस उम्मीद और आदर्शवाद को अंगीकार करना चाहिए क्योंकि उसी से उस नये भारत का सृजन होगा, जिसका वजूद हम अपने नेताओं के भाषणों में तो पाते हैं लेकिन धरती पर वह खोजे भी नहीं मिलता।
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