बगैर पक्ष करें राज


श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों ने भारतीय कूटनीति के लिए नये अवसर और चुनौतियां पेश की हैं।
पड़ोसी देश में राजपक्षे नेतृत्व (राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे) फिर सत्ता पर काबिज हो गया है। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को राजनीति में महारत हासिल है। तो वहीं उनके छोटे भाई गोटाबाया को सैन्य नेतृत्व का अनुभव है। सैनिक अधिकारी के रूप में गोटाबाया को श्रीलंका की उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे को पराजित करने का श्रेय दिया जाता है। बहुसंख्यक बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के लिए वह युद्धनायक हैं। सिंहलियों को विश्वास है कि गोटाबाया के राजनीतिक नेतृत्व में श्रीलंका की एकता और अखंडता सुरक्षित रहेगी। यही वजह है कि गोटाबाया ने अपने विजय संदेश में साफ तौर पर कहा था कि हम शुरू से जानते और मानते हैं कि इस चुनाव में हमें जो विजय मिली है, उसमें बहुसंख्यक सिंहलियों का प्रमुख योगदान है। लेकिन दूसरी ओर अल्पसंख्यक तमिल समुदाय में बहुत से लोग गोटाबाया को युद्ध अपराधी मानते हैं।
श्रीलंका में इसी साल ईसाइयों के त्योहार ईस्टर पर गिरिजाघरों पर सिलसिलेवार हुए आतंकवादी हमलों का असर चुनाव नतीजों पर साफ देखा जा सकता है। लिट्टे के आतंकवाद के कई वर्षो बाद श्रीलंका को इस्लामी आतंकवाद के खतरों से दो-चार होना पड़ा था। इन हमलों से देश में ऐसा जनमत तैयार हुआ कि एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व ही आतंकवाद के खतरे का सामना कर सकता है। राजपक्षे बंधुओं का दोबारा सत्ता में आना इसी जनमत का नतीजा है।
भारत ने श्रीलंका में इस राजनीतिक बदलाव पर त्वरित कदम उठाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां बिना देर किए गोटाबाया राजपक्षे को जीत पर बधाई दी, वहीं विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अचानक पड़ोसी देश का दौरा किया। भारत श्रीलंका के नये नेतृत्व को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि उसकी 'नेबर फस्र्टÓ यानी पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की नीति में श्रीलंका का विशेष स्थान है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोटाबाया ने भी भारत के इस कथन का उतनी ही गर्मजोशी से प्रतिउत्तर दिया और वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर 29 नवम्बर को भारत आ रहे हैं। एस. जयशंकर ऐसे पहले विदेशी प्रतिनिधि थे, जिन्होंने श्रीलंका के चुनाव नतीजों के तुरंत बाद वहां का दौरा किया। उनकी यात्रा का मकसद गोटाबाया का समर्थन और निर्वाचन प्रक्रिया का अनुमोदन करने के साथ वहां की नई सरकार के साथ मिल-जुलकर काम करने की सदिच्छा जाहिर करना था।
श्रीलंका में हुए इस राजनीतिक बदलाव से चीन भी काफी खुश है। महिंदा राजपक्षे को चीन समर्थक नेता माना जाता है। वह जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने चीन को बहुत सारी सहूलियतें दी थीं। उसी दौरान हिन्द महासागर में चीनी नौसैनिकों की गतिविधियां बढ़ी थीं। भारत को यह आशंका थी कि चीन के युद्धपोत और पनडुब्बियां श्रीलंका के बंदरगाहों का उपयोग कर सकते हैं। चीन भारत की तरह ही श्रीलंका में विकास परियोजनाओं के क्रियान्वयन में मदद कर रहा है। उसकी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) परियोजना में श्रीलंका भी शामिल है। आने वाले दिनों में यह स्पष्ट होगा कि गोटाबाया राजपक्षे भारत और चीन के बीच अपने संबंधों में कैसे संतुलन कायम करते हैं? श्रीलंका का नेतृत्व इस तथ्य की अवहेलना नहीं कर सकता कि भारत उसके भूभाग से बहुत निकट है तथा अल्पसंख्यक तमिल समुदाय भारत के तमिलनाडु राज्य से लगाव रखता है। श्रीलंका के आर्थिक विकास के लिए भी भारत के दक्षिणी राज्यों का बहुत महत्त्व है।
राजपक्षे बौद्ध सिंहली राष्ट्रवाद की लहर पर चढ़कर सत्ता में पहुंचे हैं। वह भारत और चीन के साथ संबंधों में संतुलन कायम करके अपने देश की स्वतंत्र विदेश नीति बरकरार रख सकते हैं। भारत में प्रधानमंत्री मोदी भी अनेक पक्षों से एक साथ अच्छे संबंध कायम करने की विदेश नीति पर अमल कर रहे हैं। भारत को श्रीलंका और चीन के विकासपरक संबंधों पर कोई आपत्ति भी नहीं होगी। भारत का आग्रह केवल इतना होगा कि श्रीलंका हिन्द महासागर में चीन को अपना असर बढ़ाने के लिए सहायता न दे क्योंकि यह भारत की सामरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। लेकिन राजपक्षे की भारत नीति को अनुकूल कैसे किया जाए, भारतीय कूटनीति के लिए चुनौतीपूर्ण होगी।
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