भेदभाव का समाज


लगता है, कुछ मायनों में हमारा समाज आगे से पीछे की ओर जा रहा है। स्त्री-पुरुष समानता के मामले में हमारी रैंक तभी तो गिर रही है। इसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि महिलाओं के साथ गैर-बराबरी बढ़ी है और उन्हें मिलने वाली सहूलियतें घटी हैं। विश्व आर्थिक मंच (डब्लूईएफ) द्वारा जारी वार्षिक जेंडर गैप रिपोर्ट में भारत को दुनिया में 112वां स्थान मिला है, जबकि पिछले साल इस सूची में हमारी जगह 108वीं थी। मंगलवार को जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में लिंगभेद कम तो हो रहा है लेकिन महिलाओं और पुरुषों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, कार्यालय और राजनीति में भेदभाव अभी भी मौजूद है।
आइसलैंड एकमात्र देश है, जहां महिलाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। हमारे लिए संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि पॉलिटिकल एम्पॉवरमेंट के मामले में हालात थोड़े बेहतर हुए हैं। इस मामले में भारत की रैंक 18 है। लेकिन स्वास्थ्य और उत्तरजीविता (सर्वाइवल) के मामले में भारत पिछड़कर 150वीं रैंक पर आ गया है। इसी तरह भारत की गिनती उन देशों में हो रही है, जहां औरतों के लिए आर्थिक अवसर बेहद कम हैं। कंपनियों के बोर्डों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 13.8 फीसदी है। महिलाओं को हर स्तर पर भागीदारी दिलाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में कई सारे कानून बने हैं लेकिन दिक्कत यह है कि उन्हें लागू कराने वाला अमला और समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी पितृसत्तात्मक सोच से उबर नहीं पाया है।
समाज का ढांचा भी इसी सोच पर आधारित है। यही वजह है कि महिलाओं को आज भी उपयुक्त अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। स्वास्थ्य की बात करें तो न सिर्फ निर्धन बल्कि मध्यवर्गीय परिवारों में भी खानपान पर पहला अधिकार पुरुषों का है। उनसे जो बचता है, वही महिलाओं के हिस्से आता है। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। बीमारी और गर्भावस्था जैसी स्थितियों में भी स्त्रियों को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। उनकी बीमारियों के इलाज में कोताही की जाती है। यही हाल शिक्षा में है। परंपरागत सोच के तहत बेटे को बेटियों से बेहतर शिक्षा मिलती है।
नौकरी की बात करें तो हाल तक महिलाओं का घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं माना जाता था। अब महिलाएं सभी क्षेत्रों में आ रही हैं तो वर्कप्लेस का माहौल उनके अनुकूल नहीं है। निजी कंपनियां गर्भावस्था में उन्हें छुट्टी और कुछ सहूलियतें देने के बजाय उनसे पीछा छुड़ा लेना ही बेहतर मानती हैं। राजनीतिक भागीदारी का आलम यह है कि महिला आरक्षण बिल वर्षों से लटका पड़ा है। तमाम कानूनी उपायों के बावजूद समाज में महिलाओं के लिए सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पा रही। उनके विरुद्ध हो रहे अपराधों में सजा की दर अब भी बेहद कम है। महिलाओं को हर स्तर पर बराबरी के अवसर देना न सिर्फ प्रशासन बल्कि पूरे समाज की जवाबदेही है, क्योंकि इसके बिना भारत की क्षमता आधी-अधूरी ही रहेगी।